कैदियों का दर्द समझें सरकार
राज्यभर के जेलों के सजायाफ्ता कैदी अपनी रिहाई के लिए आंदोलनरत हैं. इनमें से सैकड़ों कैदियों ने ऐसे आंदोलन पहले भी किये, जिन्हें जेल प्रशासन और संबंधित पदाधिकारियों के झूठे आश्वासनों ने दबा दिया. यह कैदियों के प्रति उनकी संवेदनहीनता को दर्शाता है. आखिर राज्य में कोई सजा पुनरीक्षण परिषद है या नहीं? अगर है […]
राज्यभर के जेलों के सजायाफ्ता कैदी अपनी रिहाई के लिए आंदोलनरत हैं. इनमें से सैकड़ों कैदियों ने ऐसे आंदोलन पहले भी किये, जिन्हें जेल प्रशासन और संबंधित पदाधिकारियों के झूठे आश्वासनों ने दबा दिया. यह कैदियों के प्रति उनकी संवेदनहीनता को दर्शाता है.
आखिर राज्य में कोई सजा पुनरीक्षण परिषद है या नहीं? अगर है तो अपने कर्तव्य के प्रति गंभीर क्यों नहीं है? कैदियों का यह आंदोलन एक चेतावनीभरा संदेश हो सकता है, क्योंकि अलग-अलग जगहों पर होने के बावजूद वे संगठित आंदोलन संचालित कर रहे हैं.
कैदियों की मांग कोई गैरकानूनी भी नहीं है, बल्कि देश के हर नागरिक को मिले संवैधानिक अधिकारों के दायरे में ही है. इसलिए सरकार और राज्य सजा पुनरीक्षण परिषद को त्वरित कदम उठाते हुए उनकी रिहाई का रास्ता साफ करना चाहिए. जब किसी कानून के तहत दोषियों को सजा का प्रावधान है, तो वही कानून उन्हें रिहाई का भी हक देता है. जेलों में जो कैदी अनशन कर रहे हैं, वे हर तरह के प्रयास से थक-हार चुके हैं.
रुपये की ताकत से वे कानूनी लड़ाई लड़ नहीं सकते, क्योंकि वे गरीब व लाचार हैं, खेती लायक जमीन खो चुके हैं और अपने परिवार से बिखर चुके हैं. इसके बावजूद वे अपने गांव जाना चाहते हैं, बिखरे परिवार को समेटना चाहते हैं. अपना बाकी जीवन समाज के हित में लगाना चाहते हैं. इसलिए उनकी मांगें जायज हैं. कैदियों के प्रति सरकार को अपना नजरिया बदलना होगा.
जहां एक तरफ सरकार करोड़ों रुपये खर्च कर लोगों को मुख्यधारा में लाना चाहती है, वहीं, दूसरी तरफ समाज से परे कैदी जीवन जी रहे लोगों के प्रति उदासीन है. मैंने भी कैदी जीवन जिया है, इसलिए उनका दर्द समझता हूं. मैं उनके इस आंदोलन का समर्थन करता हूं. उनकी रिहाई के प्रयास तेज किये जायें.
जीतन मरांडी, रांची