इस नस्लभेद से लड़ना ही होगा
।। कमल मित्र चिनॉय ।। प्रोफेसर, जेएनयू पूर्वोत्तर के लोगों के बारे में बहुत अधिक नहीं लिखा गया है और न ही उन पर फिल्में बनी हैं. इस संदर्भ में देश के नागरिक समाज को भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की जरूरत है. निदो उनके हाथों मारा गया शहीद है, जिन्हें ‘विविधता में एकता’ का अर्थ […]
।। कमल मित्र चिनॉय ।।
प्रोफेसर, जेएनयू
पूर्वोत्तर के लोगों के बारे में बहुत अधिक नहीं लिखा गया है और न ही उन पर फिल्में बनी हैं. इस संदर्भ में देश के नागरिक समाज को भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की जरूरत है. निदो उनके हाथों मारा गया शहीद है, जिन्हें ‘विविधता में एकता’ का अर्थ मालूम नहीं.
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जॉन रॉबिन्सन की टिप्पणी है कि भारत के बारे में आप जो भी कहें, वह बात सही होगी, लेकिन उसके उलट कही हुई बात भी उतनी ही सही होगी. निश्चित रूप से हमारे महानगर सांस्कृतिक बहुलता और बहुलतावादी राष्ट्रवाद को प्रोत्साहित करने में असफल रहे हैं. भूमि, सीमा, संस्कृति आदि को लेकर आये दिन होनेवाले अंतर-जनजातीय तनावों को आमतौर पर नजरअंदाज कर दिया जाता है. यह महज संयोग भर नहीं है.
नागाओं के आंतरिक विवाद, नागा-मैती अंतर्विरोध, अरुणाचलियों के दावे, असम के सीमावर्ती क्षेत्रों के झगड़े, त्रिपुरा में तनाव- ये सब हकीकतें हैं, लेकिन दिल्ली-केंद्रित ‘राष्ट्रीय मीडिया’ शायद ही कभी इनके बारे में खबरें चलाता है.
इन क्षेत्रों के बारे में रिपोर्ट सिर्फ संकट के समय तक सीमित है. सांस्कृतिक रूप से देखें तो मणिपुर का प्रसिद्ध नृत्य ‘रासलीला’ उत्तर भारतीयों को बहुत जाना-पहचाना लगेगा. पूर्वोत्तर के लोग हिंदी के टीवी धारावाहिक देखते हैं, लेकिन हिंदी पट्टी में उधर के कार्यक्रमों को लेकर कोई रुचि नहीं है. जैसे कपड़े वहां के युवा पहनते हैं, लगभग वही पहनावा देश के बाकी हिस्सों में रहनेवाले युवाओं का है. बहुत सारे लोग हिंदी बोलते हैं, लेकिन बहुत कम हिंदी बोलनेवाले हैं, जो वहां की किसी भाषा को सीखने की कोशिश करते हैं.
सवाल उठता है कि पूर्वोत्तर के लोगों के खिलाफ हिंसा की घटनाएं क्यों बढ़ रही हैं और शिक्षा के प्रसार के बावजूद हमारे समाज से नस्लभेद कम क्यों नहीं हो पा रहा है?
इस समस्या की शुरुआत विद्यालयों से होती है जहां ‘विविधता में एकता’ पर चरचा तो होती है, पर उसे ठीक से विेषित नहीं किया जाता है. सोवियत संघ के विघटन के बाद भारत संभवत: दुनिया का सबसे बड़ा बहुलतावादी देश है.
लेकिन यह बहुलता पूर्वोत्तर के प्रति समुचित रुचि और सम्मान की भावना के रूप में परिणत नहीं हो सकी है. दशकों से पूर्वोत्तर को ठीक से जानने-समझने की जरूरत महसूस की जाती रही है. नस्लभेद की अनेक घटनाओं के बावजूद उनकी असलियत को उलट-पुलट कर देनेवाली आधारहीन समझदारियों और पूर्वाग्रहों को तोड़ने की कोशिशें, विशेषकर शिक्षा-व्यवस्था के माध्यम से, नहीं हुई हैं.
दिल्ली के लाजपत नगर में मारा गया निदो तनियाम पूर्वोत्तर के अपेक्षाकृत शांत राज्य अरुणाचल का रहनेवाला था. 1962 में चीन के साथ युद्ध के दौरान अरुणाचलियों ने रसद की तंगी का सामना कर रहे हमारे सैनिकों तक जरूरी सामान पहुंचाने के साथ उन्हें चीनी सेनाओं से बचा कर सुरक्षित स्थानों तक ले जाने में भी बड़ी भूमिका निभायी. उन्हीं दिनों केसी जौहरी जैसे अधिकारी स्थानीय लोगों की मदद से अरुणाचल में रखे खजाने को चीनी सेना के हाथों में पड़ने से बचा सके थे.
पूर्वोत्तर के लोगों के बारे में बहुत अधिक नहीं लिखा गया है और न ही उन पर फिल्में बनी हैं. इस संदर्भ में नागरिक समाज को भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की जरूरत है. जब पूर्वोत्तर के लोगों का उत्पीड़न हो या उनके साथ हिंसा हो तो पुलिस के पहुंचने तक नागरिक समाज को तुरंत हस्तक्षेप करना चाहिए और आगे भी मामले पर निगरानी रखनी चाहिए. दिल्ली में केंद्र सरकार को कानून-व्यवस्था परगंभीरता से ध्यान देना चाहिए.
यह अकसर देखने में आया है कि दूसरी संस्कृतियों से आये लोगों के साथ पुलिस का व्यवहार ठीक नहीं रहता. नस्ली आधार पर भेदभाव और हिंसा से जुड़े मामलों में लापरवाह और दोषी पुलिसकर्मियों को कर्तव्यों का निर्वहन न करने के लिए सजा दी जानी चाहिए, ताकि लाजपत नगर जैसी वारदातें भविष्य में रोकी जा सकें तथा पुलिस को अधिक जिम्मेवार बनाया जा सके.
राजनीतिक दलों को भी अपने सदस्यों को पूर्वोत्तर के भाइयों-बहनों की सुरक्षा के लिए संवेदनशील बनाने का प्रयास करना चाहिए. नागरिक समाज के लोगों को भी यह समझ गहरी करनी होगी कि भारतीय होने का मतलब बहुत जटिल है और यह सिर्फ उनके अपने क्षेत्र के समाज और संस्कृति तक सीमित नहीं हो सकता. अगर स्थिति ऐसी ही बनी रही, तो नस्लवादी लोगों द्वारा पूर्वोत्तर के लोगों को परेशान करने और उन पर हमला करने से रोकने के लिए सक्रिय नागरिक प्रतिरोध की जरूरत भी पड़ सकती है. अगर लाजपत नगर के दुकानदारों को ऐसा करने से रोका जा सकता तो आज निदो जीवित होता.
निदो की मौत कोई साधारण घटना नहीं है. यह पूरे देश के लिए बड़े शर्म की बात है, क्योंकि निदो देश की राजधानी में गहरे पैठे नस्ली पूर्वाग्रह का शिकार बना है. वह उनके हाथों मारा गया शहीद है जिन्हें ‘विविधता में एकता’ का मतलब मालूम नहीं है. इसकी गंभीरता पर ठहर कर सोचते हैं, तो यह घटना महत्वपूर्ण हो जाती है.
(फेसबुक वॉल से साभार/ अनुवाद : पीके राय)