सियासी सपनों का सौदा है 2014
पुण्य प्रसून बाजपेयी वरिष्ठ पत्रकार बंगाल की 42 सीट में से 31 सीटें ऐसी हैं, जहां मोदी के विकास के मंत्र पर गुजरात की प्रयोगशाला भारी पड़ेगी. और देश में इसी चेहरे को विस्तार मिल जाये, तो 543 में से 218 सीटों पर गुजरात की प्रयोगशाला मोदी के विकास के मंत्र पर भारी पड़ेगी.देश में […]
पुण्य प्रसून बाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
बंगाल की 42 सीट में से 31 सीटें ऐसी हैं, जहां मोदी के विकास के मंत्र पर गुजरात की प्रयोगशाला भारी पड़ेगी. और देश में इसी चेहरे को विस्तार मिल जाये, तो 543 में से 218 सीटों पर गुजरात की प्रयोगशाला मोदी के विकास के मंत्र पर भारी पड़ेगी.देश में सपनों की कमी नहीं और 2014 के लोकसभा चुनाव को लेकर हर राजनेता सपने बेचने को तैयार है. यहां तक कि प्रधानमंत्री की रेस में शामिल कद्दावर राजनेता भी सपने बेचने निकले हैं. नरेंद्र मोदी का सपना है बंगाल में केसरिया लहराये. मोदी को लगने लगा है कि 2014 में 272 के आंकड़े को छूना है, तो बंगाल में इतिहास रचना होगा. 42 सीटों वाले बंगाल में बीजेपी के पास सिर्फ एक सीट है. 2009 में जसंवत सिंह गोरखालैंड वाली जमीन से जीते थे.
विधानसभा में तो बीजेपी का खाता भी नहीं खुला. तो सवाल बंगाल में सेंध लगाने का नहीं है, बल्कि कोलकाता में 5 फरवरी को जो भीड़ जुटी, उसे वोट में बदल कर लाल बंगाल को केसरिया में बदलने का ख्वाब मोदी ने पाला है. इसलिए बेखौफ मोदी यह कहने से नहीं चूके कि दिल्ली की सत्ता पर बैठ कर भी बंगाल को बदला जा सकता है.
यूं बंगाल में कभी केसरिया जमीन बनी ही नहीं, तो बीजेपी खड़ी होती कहां. 2011 के विधानसभा चुनाव में सभी 294 सीटों पर लड़ कर भी केसरिया का सच शून्य ही रहा. 2006 में तीन दर्जन सीटों पर बीजेपी ने अपने उम्मीदवार खड़े करने का सपना पाला और वह भी शून्य में सिमट गया.
मोदी की तरह सपना तो मुलायम सिंह, नीतीश कुमार, जयललिता और नवीन पटनायक की चौकड़ी ने भी देखा है. किसी ने तीसरे मोरचे का सपना देखा है, तो किसी ने तीसरे मोरचे के जरिये पीएम बनने का सपना. और इसकी पहली आहट 5 फरवरी को ही संसद में तब दिखी जब 11 राजनीतिक दलों ने हाथ मिला कर कहा कि चुनाव के लिए जनता को लुभानेवाली मनमोहन सरकार की नीतियों को अब संसद से सड़क पर जाने नहीं देंगे.
और यही गांठ 2014 के चुनाव में तीसरे मोरचे की दस्तक है. तीसरे मोरचे के सपनों पर ध्यान दें, तो वामपंथी गंठबंधन की अगुवाई करते प्रकाश करात के पास चार दल हैं, लेकिन लोकसभा की महज 24 सीटें हैं. मुलायम के पास 22, नीतीश कुमार के पास 19, नवीन पटनायक के पास 14, जयललिता के पास 9, बाबूलाल मरांडी के पास दो, देवगौड़ा के पास एक और महंत के पास भी एक ही सांसद है. यदि जयललिता और नवीन पटनायक को छोड़ दें, तो कोई ऐसा चेहरा नहीं है, जो अपने राज्य में ही नंबर एक पर हो.
फिलहाल इनके पास 543 में से महज 92 सीटें हैं. सपनों की इस सियासत में ममता बनर्जी भी शामिल हो जायें, इसकी कवायद शुरू हो गयी है. लेकिन वाम के साथ ममता कैसे खड़ी होंगी यह भी किसी सपने से कम नहीं. इसके सामानांतर अनूठा सवाल तो यह है कि बंगाल की 42 सीट में से 31 सीटें ऐसी हैं, जहां मोदी के विकास के मंत्र पर गुजरात की प्रयोगशाला भारी पड़ेगी. और देश में इसी चेहरे को विस्तार मिल जाये, तो 543 में से 218 सीटों पर गुजरात की प्रयोगशाला मोदी के विकास के मंत्र पर भारी पड़ेगी. पर मोदी 2014 की नब्ज को 272 के साथ पकड़ना चाह रहे हैं.
सपनों की इस सियासत में कांग्रेस भी पीछे नहीं है. इसे तेज उड़ान खांटी कांग्रेसी जनार्दन द्विवेदी ने दे दी है. मौजूदा सरकार ने जिस तरह विकास की लकीरों के जरिये समाज में असमानता चरम पर पहुंचा दी, उसमें पहली बार कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता ने आरक्षण का सवाल गरीबी के साथ जोड़ कर अपने हाथ को आम आदमी के साथ खड़ा करने का सपना पाला है.
लेकिन संयोग ऐसा है कि मोदी और राहुल के सपनों का सच उनकी अपनी बनायी सियासी जमीन पर ही टिकी है. एक ने गुजरात को प्रयोगशाला बनाया तो दूसरे ने देश को. अंतर सिर्फ इतना है कि राहुल गांधी को देश में बनायी अपनी प्रयोगशाला की जमीन पर खड़े होकर ही सपने बेचने हैं. लेकिन मोदी को गुजरात से निकल कर हर राज्य में अलग-अलग सपने बेचने हैं. बंगाल की जमीन पर नरेंद्र मोदी के निशाने पर वामपंथी आ जाते हैं और वामपंथियों के मुद्दे को चुरा कर कांग्रेस जातीय आधार पर टिके वोट बैंक में सेंध लगाना चाहती है.
सपनों को बेचते-बेचते आज जब कांग्रेस ढलान पर है, तो वह अपने सपनों से देश के सपनों को जोड़ने का सपना देख रही है. लेकिन जातीय आधार पर टिके आरक्षण का सपना भी चूर-चूर तो नहीं हो रहा. क्योंकि उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह और मायावती, बिहार में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद ऐसे बड़े खिलाड़ी हैं, जो आरक्षण के जरिये जातीय विकास के सपने बेचते रहे, लेकिन राज्य का विकास सपनों की उड़ान से ही गुफ्तगू करता रहा. एक बार फिर आरक्षण का मंत्र बदल कर कांग्रेस खुद का टेस्ट कर रही है.
गुजरात को लेकर कांग्रेस की सतही सियासत तो और ही गुल खिला रही है. क्योंकि मोदी देश में घूम-घूम कर राहुल की सियासत को आईना दिखा रहे हैं तो अब राहुल भी मोदी की जमीन पर चुनौती देने का मन बना रहे हैं. 8 फरवरी को गुजरात के बरदोली में राहुल विकास खोज यात्रा की अगुवाई करेंगे. मोदी जिस गुजरात मॉडल का बखान करते हैं, उसकी हवा निकालने के लिए राहुल आदिवासी बहुल इलाके बरदोली जा रहे हैं.
दरअसल कांग्रेस की राजनीतिक जीत गुजरात में आदिवासी बहुल इलाकों में ही ज्यादा रही है. लेकिन बीते विधानसभा चुनाव में मोदी ने कांग्रेस के वर्चस्व वाले उन इलाकों में भी सेंध लगा दी. असल में मोदी ने आदिवासियों के लिए तीन लोकलुभावन काम कर दिये. पहला, हर आदिवासी को घर. दूसरा, खेती की जमीन पर उनका मालिकाना हक.
और तीसरा, कल्याण योजना के जरिये आर्थिक मदद. अब राहुल के सामने सबसे बड़ा संकट यह है कि अगर 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस आदिवासी बहुल इलाकों में भी जीत नहीं पायेगी, तो यह कांग्रेस की हार से कहीं ज्यादा बड़ी मोदी की जीत होगी. क्योंकि सत्ता कभी भी पलटी हो, पर कांग्रेस ने आदिवासी बहुल इलाकों में सीटें कभी गंवायी नहीं. राहुल की राजनीति का सच एक तीर से दो निशाना साधना है. एक तरफ सीटों को बचाना और दूसरी तरफ सीटों को बचाने के लिए विकास खोज यात्रा के जरिये मोदी को घेरना.
एक सपना दिल्ली में आम आदमी पार्टी के नायक ने भी देखा है. इस सपने में हर दागी खारिज है और तीसरे मोरचे की बात हो या मोदी या राहुल की, सपना यही देखा गया है कि कोई भी संसद की चारदीवारी को छू भी नहीं पाये. यह सपना देखा है अरविंद केजरीवाल ने. दिल्ली की सत्ता आम आदमी की सत्ता है और देश की संसद भी आम आदमी की संसद हो सकती है, लेकिन क्या वाकई यह देश इस सपने को उड़ान भरने देगा.
या फिर 2014 की हर कवायद सपने में बदलेगी और चुनाव बाद लोकतंत्र का नारा लगाते हुए एक नये तरीके का गंठबंधन देश की जनता को चिढ़ा कर सत्ता पर काबिज हो जायेगा. और नारा लगेगा, लोकतंत्र जीत गया. या फिर सबसे खतरनाक है सपनों का सौदा करना!