पाकिस्तान होने का मतलब

चंदन श्रीवास्तव एसोसिएट फेलो, कॉमनकॉज एक वाक्य है- ‘पाकिस्तान के विचार में ही खोट है.’ अक्सर सुनायी देनेवाले इस वाक्य का आखिर क्या अर्थ होता है? उत्तर के लिए पीछे जाना होगा, उन वक्तों में जब पाकिस्तान बना. कायदे-आजम कहलानेवाले जिन्ना टीबी के मरीज थे, पाकिस्तान बनने के साल भर पूरा होते-होते उनकी मौत हो […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 5, 2016 6:36 AM

चंदन श्रीवास्तव

एसोसिएट फेलो, कॉमनकॉज

एक वाक्य है- ‘पाकिस्तान के विचार में ही खोट है.’ अक्सर सुनायी देनेवाले इस वाक्य का आखिर क्या अर्थ होता है? उत्तर के लिए पीछे जाना होगा, उन वक्तों में जब पाकिस्तान बना.

कायदे-आजम कहलानेवाले जिन्ना टीबी के मरीज थे, पाकिस्तान बनने के साल भर पूरा होते-होते उनकी मौत हो गयी. 12 सितंबर, 1948 को उन्हें कराची में दफनाया गया. सवाल उठा कि जिन्ना के जनाजे की नमाज कौन पढ़ायेगा? सवाल उठना ही था, क्योंकि ‘लीग’ की राजनीति के सबसे सरगर्म दिनों में भी मौलानाओं की एक बड़ी तादाद जिन्ना को ‘काफिर’ कहती थी. मजलिस-ए-अहरार के अग्रणी उलेमा मजहर अली अजहर तो जिन्ना को ‘काफिर-ए-आजम’ बुलाते थे. जनाजे की नमाज पढ़ायी देवबंदी मौलाना शब्बीर अहमद उस्मानी ने. उनसे भी पूछा गया कि बहुत से उलेमा जिन्ना को काफिर मानते हैं फिर आपने नमाज-ए-जनाजा पढ़ाने का फैसला कैसे किया? मौलाना उस्मानी का जवाब था कि ‘रात मेरे सपने में रसूल-ए-करीम (पैगम्बर मोहम्मद साहब) आये थे. उनका हाथ जिन्ना के कंधे पर था और वे कह रहे थे कि यह तो मेरा मुजाहिद है!’

जिन्ना की मौत के बाद उनके बारे में एक मौलाना का ऐसा कहना बड़ा मानीखेज है, खासकर जिन्ना के बारे में बनायी गयी सेक्युलर और लोकतांत्रिक छवि के बरक्स. जिन्ना को ‘सेक्युलर’ और ‘डेमोक्रेटिक पाकिस्तान’ का पक्षधर करार देनेवाले अपनी बात की पुष्टि में पाकिस्तान बनने के तीन निर्णायक मुकाम गिनाते हैं. पहला मुकाम है 1940 (मार्च) का, जब पाकिस्तान बनाने का प्रस्ताव औपचारिक रूप से लीग के लाहौर अधिवेशन में पारित हुआ. इसके करीब डेढ़ साल बाद 2 नवंबर, 1941 को जिन्ना ने अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों से एक भाषण में कहा ‘हिंदुओं और सिखों से कहिये कि यह बात पूरी तरह से गलत है कि पाकिस्तान एक धर्माधारित राष्ट्र बनेगा, जहां उन्हें कोई अधिकार ना होंगे.’

दूसरा मुकाम है बंटवारे के तीन महीने पहले का, जब तकरीबन तय हो चुका था कि पाकिस्तान बन कर ही रहेगा. उस समय रॉयटर के संवाददाता डून कैंपबेल (कैंपबेल ने ही लिखा कि गांधी को चार गोलियां लगी हैं, ना कि तीन) से जिन्ना ने कहा कि बनने जा रहा ‘नया राष्ट्र आधुनिक, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष होगा, जनता संप्रभु होगी और नये राष्ट्र के नागरिक चाहे जिस धर्म, जाति या पंथ के हों, वे समान अधिकार के भागी होंगे.’ तीसरा मुकाम 11 अगस्त, 1947 का है, जब पाकिस्तान की संविधान-सभा के पहले सत्र को संबोधित करते हुए जिन्ना ने कहा कि ‘आप चाहे जिस धर्म, जाति या पंथ के हों, इसका राजकाज की बातों से कोई लेना-देना नहीं.’

जिन्ना के ये उद्गार अगर उन्हें ‘सेक्युलर’ और ‘डेमोक्रेटिक’ साबित करते हैं, तो नमाज-ए-जनाजा पढ़ानेवाले मौलाना शब्बीर उस्मानी को क्यों लगा कि वे ‘मुजाहिद’ हैं? उत्तर शायद फरवरी, 1948 के जिन्ना के भाषण में छिपा है. तब अमेरिकी जनता के नाम रेडियो पर अपने संबोधन में जिन्ना ने कहा कि ‘मैं नहीं जानता पाकिस्तान का संविधान क्या स्वरूप लेगा, लेकिन मुझे उम्मीद है कि वह इसलाम के अनिवार्य सिद्धांतों के अनुकूल लोकतांत्रिक स्वभाव का होगा.

इसलाम और उसके आदर्शों ने हमें लोकतंत्र सिखाया है. उसके सिद्धांत आज भी वास्तविक जीवन में उतने ही व्यावहारिक हैं, जितने 1,300 साल पहले थे.’ बेशक इस रेडियो-वार्ता में जिन्ना अपनी पुरानी बात दोहराते हैं कि ‘पाकिस्तान किसी एक धर्म पर आधारित राष्ट्र नहीं बनेगा, जहां दैवीय मिशनवाले धर्मगुरुओं का राज चले’, लेकिन इस रेडियो-वार्ता के यह भी संकेत हैं कि लोकतंत्र की जिन्ना की कल्पना के भीतर इसलाम एक अनिवार्य तत्व है. कुछ अध्येता जिन्ना के इस दोचित्तेपन के पीछे अल्लामा इकबाल का प्रभाव देखते हैं.

धर्माधारित राष्ट्र होना है या इसलामी राष्ट्र, मुसलिम लीग 1940 के बाद इस प्रश्न को कभी नहीं सुलझा सकी. जिन्ना के जनाजे की नमाज पढ़ानेवाले मौलाना उस्मानी खुद ही इसकी मिसाल हैं.

दारुल उलूम देवबंद के पढ़े और हैदराबाद के मक्की मसजिद के इमाम के रूप में निजाम से पेंशन पानेवाले उस्मानी अपनी लीगपरस्ती में बंटवारे के बाद पाकिस्तान गये. इससे पहले बंटवारे का विरोध करनेवाले मौलानाओं से अलग जमीयतुल उलेमा नाम के संगठन के अध्यक्ष के रूप में पाकिस्तान बनाने के आंदोलन को खूब हवा दी. गैर-मुसलिमों पर जजिया लगाने का विचार रखनेवाले उस्मानी पाकिस्तान में संविधान-सभा के सदस्य बने और बाद को सरफरोश-ए-इसलाम नाम का एक जेहादी संगठन बनाया, जिसका इरादा लाल किले पर पाकिस्तान का झंडा फहरा कर दारुल-हर्ब (काफिरों का देश) भारत को इसलाम पढ़ाने का था.

आज के हाफिज सईद जैसे भारत-विरोधी आतंकी इन्हीं शब्बीर उस्मानी की परंपरा के विस्तार हैं और पाकिस्तान भीतर से कई फिरकों में टूटा हुआ राष्ट्र, जिसे अक्सर पाक सेना का डंडा एक में बांध कर रखता आया है.

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