लाउडस्पीकर से नुकसान!
पिछले दिनों आपके अखबार में संपादकीय पन्ने पर ‘कुछ अलग’ कॉलम में डॉ सुरेश कांत का व्यंग्य ‘लाउडस्पीकरेण संस्थिता’ पढ़ने को मिला. बड़े सही समय पर यह व्यंग्य प्रकाशित हुआ है. शायद पढ़ कर किसी तेज लाउडस्पीकर बजानेवाले की संवेदना जग जाये! प्रभात खबर को भी प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद! सप्तमी को दुर्गा माता […]
पिछले दिनों आपके अखबार में संपादकीय पन्ने पर ‘कुछ अलग’ कॉलम में डॉ सुरेश कांत का व्यंग्य ‘लाउडस्पीकरेण संस्थिता’ पढ़ने को मिला. बड़े सही समय पर यह व्यंग्य प्रकाशित हुआ है.
शायद पढ़ कर किसी तेज लाउडस्पीकर बजानेवाले की संवेदना जग जाये! प्रभात खबर को भी प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद! सप्तमी को दुर्गा माता का पट खुल जाने के बाद पूजा पंडाल देखनेवालों की भीड़ बढ़ने लगी है. लेकिन, पूजा क्या होती है, वह देखने की हिम्मत नहीं होती. क्योंकि, बाहर इतना तेज लाउडस्पीकर बजता है कि कान झनझना जाता है, दिमाग सुन्न हो जाता है, धड़कन तेज होने लगती है, मन बेचैन हो उठता है!
अब तो पूजा स्थान में बजनेवाला लाउडस्पीकर वहीं तक सीमित नहीं रहता, बल्कि उसका विस्तार सड़क के किनारे चोंगा लगा कर बहुत दूर तक होता है़.कहां तक भागोगे! कई लोग घर से निकल कर ऐसे समय में अन्यत्र चले जाते हैं. ऐसे में आयोजनकर्ताओं कि संवेदना कहां चली जाती है! प्रशासन को तो कोई मतलब ही नहीं है. रिकाॅर्डिंग बजाने और लाउडस्पीकर हटा कर यदि भक्तों / प्रेमियों की टोलियां स्वयं भजन गायन करतीं, तो उस स्थान पर भक्ति का वास्तविक वातावरण बनता और लोग सुन कर श्रद्धा में सराबोर होते!
पारस नाथ सिन्हा, हरमू , रांची