भारत जीता तो हारा कौन?

तरुण विजय राज्यसभा सांसद, भाजपा देश पर विपदा आये और हम अलग-अलग आवाजों में बात करें, तो इससे मजबूत कौन होगा? क्या हमारे राजनीतिक लाभ, विचारधारा का महत्व, व्यक्तिगत नेतृत्व की महत्वाकांक्षाएं देश से बड़ी हो सकती हैं? हम भूल गये कि इतिहास के कालक्रम में सत्तर साल एक बूंद से भी कम होते हैं. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 14, 2016 12:16 AM

तरुण विजय

राज्यसभा सांसद, भाजपा

देश पर विपदा आये और हम अलग-अलग आवाजों में बात करें, तो इससे मजबूत कौन होगा? क्या हमारे राजनीतिक लाभ, विचारधारा का महत्व, व्यक्तिगत नेतृत्व की महत्वाकांक्षाएं देश से बड़ी हो सकती हैं? हम भूल गये कि इतिहास के कालक्रम में सत्तर साल एक बूंद से भी कम होते हैं. हमारे पिता, पितामह की आंखों के सामने देश विभाजित हुआ था और लाखों लोग मारे गये थे. सिर्फ इसलिए कि हम एकता बना नहीं सके और एक खून, एक नस्ल, एक भाषा, एक पुरखे होने के बावजूद सांप्रदायिक उन्माद ने देश बांटा ही नहीं, नये शत्रु भी पैदा कर दिये. क्या वही शोकातिका फिर दोहरायेंगे? यदि कश्मीर जाता है, तो किसकी क्षति है?

यदि कश्मीर में आतंकवादियों का निर्मूलन होता है, तो किसकी उपलब्धि है? वह सैनिक जो -40 डिग्री में सियाचिन पर और 48 डिग्री के उबलते अंधड़ों में जैसलमेर में खड़ा रहता है, जो केरल, कर्नाटक या नगालैंड, अरुणाचल से है, जो यादव, ठाकुर, महार या वैश्य है- कोई जानता नहीं; जिसके माता-पिता, बच्चे, पत्नी, बहनें वैसी ही आत्मीय और लाड़-प्यार भरी होती है, जैसे हमारे परिवारजन हैं; वह जब सीमा पर लड़ता है, शत्रु मारता है, बलिदान देता है, तो किसका मन अभिमान, मौन श्रद्धांजलि और बिछड़ने के अवसाद से भर उठता है?अगर ऐसा होता है, तब ही आप और हम भारतीय हैं, वरना पासपोर्ट धारी इंडियन और पासपोर्ट धारी अमेरिकी में फर्क ही क्या है?

हम प्राय: टीवी पर क्षणिक अतिरेकी उत्साह में लिपटती देशभक्ति देखते हैं. शहीद सैनिक की देह जिस गांव-शहर में आती है, वहां के प्रमुख लोग व्यस्त रहते हैं. शहर के स्कूल सम्मान में उसकी जीवनकथा बच्चों को सुना कर श्रद्धांजलि देते नहीं दिखते. बच्चों को शहीदे-प्रणाम के लिए पंक्तिबद्ध खड़ा कर पार्थिव देह ले जाये जाते समय सम्मान करना सिखाया नहीं जाता. प्रदेश सरकारें अपने राज्यों के पाठ्यक्रमों में स्थानीय सैनिक शहीदों की वीरगाथाएं, परमवीर चक्र विजेताओं के शौर्य भरे कारनामे किसी भी कक्षा में अतिरिक्त पठन सामग्री के नाते भी शामिल नहीं करते.

फिर भी शहीदों के संदर्भ में शोर मचाना, वितंडा खड़ा करना, अखबारों में ऐसे बयान देना कि मेरा स्वदेशी नेता तो आहत हो ही, मैं शत्रु-देश में भी स्वदेश के खिलाफ ‘प्रमाण’ बन जाऊं, यह सब चलता रहता है.

हमसे बाद में जो देश स्वतंत्र हुए- वे सकल घरेलू उत्पाद, प्रति व्यक्ति समृद्धि, शिक्षा और अच्छे स्वास्थ्य के मानकों पर हमसे कई गुना आगे बढ़ गये. महान संस्कृति, सभ्यता और लोकतंत्र को प्रचारित करते-करते भी हम न तो स्त्री सशक्तिकरण में आगे बढ़े, न हमारे विश्वविद्यालय विश्व स्तर पर प्रथम सौ में आ पाये, न हम शोध व खेल में कुछ ऐसा कर पाये कि विश्व में हमारी धाक जमे. फुटपाथ पर जिंदगियां सिसकती हैं, चालीस प्रतिशत दो जून का भरपेट खाना नहीं पाते, अनुसूचित जातियों पर अमानुषिक जुल्मों की खबरें हर दिन छपती हैं- फिर भी हम मुहल्लाछाप राजनीति में जीवन का उद्देश्य केवल प्रतिपक्षी को अपमानित करना ही मान बैठे हैं.

क्या कभी देखा है कोई मुख्यमंत्री या मंत्री कभी किसी विश्वविद्यालय के अध्यापकों, छात्रों से आडंबरहीन सहज चर्चा के लिए चला आता हो? और पूछे कि क्या आपकी किसी समस्या का मैं समाधान कर सकता हूं? क्या किसी नेता को पत्नी के साथ सब्जी, कपड़ा खरीदने या यूं ही बच्चों को घुमाने जाते देखा है?

इनको अपने बड़े होने का अहंकार इतना ज्यादा होता है कि शर्म से जमीन में गड़ जायेंगे, लेकिन बाजार में आम नागरिक की तरह खुद अपनी निजी कार चलाते हुए परिवार के साथ दिखना पसंद नहीं करेंगे.

ऐसे लोग- देश की सुरक्षा, सैनिकों के सम्मान, हथियारों की बेहतर खरीद, आतंकवाद के अंत जैसे विषयों पर एकजुटता दिखाते हुए, देश का हौसला कैसे बढ़ायेंगे? क्या इनसे सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि सुरक्षाकर्मियों के घेरे में समाज से कई मंजिल ऊंचे मंचों से नागरिकों को चींटी के मानिंद देखते हुए जरा बताइये तो हुजूर कि भारत जीतता है, तो हारता है कौन? और भारत को चोट लगती है, तो कराहता है कौन?

भारत जिन शक्तियों से घिरा है, वे निश्चय ही हमारी प्रगति नहीं चाहेंगी. यदि अब तक खैबर से हम पर हमले होते रहे, तो भविष्य की सबसे बड़ी सामरिक चुनौतियां सागर क्षेत्र से आनेवाली हैं. भारत की साढ़े सात हजार किमी लंबी सागर-सीमा और लगभग इतनी ही जमीनी-पहाड़ी सरहद हमारे सामने राष्ट्रीय एकता के अलावा और कोई विकल्प छोड़ती ही नहीं.

भीतर से नक्सली और माओवाद, बाहर से पाक तथा चीन की चुनौतियों के साथ जेहादी और आइएस के प्रहार एक ऐसे भारत की मांग करते हैं, जो विभिन्न राजनीतिक कार्यक्रमों पर चाहे जितने ही मतभेद रखे, लेकिन सुरक्षा और आतंकवाद पर सर्वसम्मति हो. इसके लिए सेना और सैनिकों का सम्मान सर्वोपरि होना चाहिए. क्या हम प्रत्येक विद्यालय और विवि में कम-से-कम परमवीर चक्र विजेता वार सैनिकों के चित्र लगाने से शुरुआत कर सकते हैं? नेताओं के चित्र भले हटा दें, पर सैनिकों के चित्र लगने ही चाहिए.

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