ठेके पर हो प्रोफेसर की नियुक्ति

देश की उच्च शिक्षा संस्थाओं के मानदंड स्थापित करने को नेशनल एसेसमेंट एंड एक्रेडिटेशन काउंसिल (नैक) का गठन किया गया है. नैक द्वारा प्रयास किये जा रहे हैं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समकक्ष संस्थाओं के साथ भारतीय शिक्षा संस्थानों का साझा मूल्यांकन हो. जैसे अमेरिका की काउंसिल फाॅर हायर एजुकेशन एक्रेडिटेशन अमेरिकी संस्थाओं का मूल्यांकन […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 18, 2016 1:38 AM

देश की उच्च शिक्षा संस्थाओं के मानदंड स्थापित करने को नेशनल एसेसमेंट एंड एक्रेडिटेशन काउंसिल (नैक) का गठन किया गया है. नैक द्वारा प्रयास किये जा रहे हैं कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समकक्ष संस्थाओं के साथ भारतीय शिक्षा संस्थानों का साझा मूल्यांकन हो. जैसे अमेरिका की काउंसिल फाॅर हायर एजुकेशन एक्रेडिटेशन अमेरिकी संस्थाओं का मूल्यांकन करती है. इस अमेरिकी संस्था तथा भारत की नैक द्वारा भारतीय शिक्षा संस्थाओं का साझा मूल्यांकन किया जायेगा. इससे नैक द्वारा दिये गये अंक अमेरिका में मान्य हो जायेंगे. भारतीय शिक्षा संस्थानों को यह भी पता लग जायेगा कि वैश्विक स्तर पर वे कहां ठहरते हैं.

आइटीआइ, आइआइएम तथा चुनिंदा केंद्रीय विश्वविद्यालयों को छोड़ दें, तो अपने देश में उच्च शिक्षा खस्ताहाल है. यह समस्या वाइसचांसलरों की राजनीतिक नियुक्तियों से उपजी है. मंत्रियों का ध्यान अपने चहेतों को प्रोफेसर के पद पर नियुक्त करने पर होता है, न कि संस्था में सुधार लाने का. रिसर्च करना तो दूर, इनकी पढ़ाने में भी रुचि नहीं होती. जो प्रोफेसर रिसर्च करना चाहते हैं, उन्हे सुविधाएं देने में वाइस चांसलर की रुचि नहीं रहती. डीयू के एक एसोसिएट प्रोफेसर ने बताया कि लंबे समय तक उन्हें बैठने के लिए कमरा भी उपलब्ध नहीं हुआ. सच्चे प्रोफेसर इन बुनियादी व्यवस्थाओं के आभाव में शिथिल हो चले हैं. वाइस चांसलरांे की इस मनमानी के प्रतिरोध में अध्यापकों ने यूनियन का सहारा लिया. हमारे विवि वाइस चांसलरों तथा अध्यापकों के बीच कुश्ती का अखाड़ा बन गये हैं.

सरकार ने अकुशल व्यक्तियों की नियुक्ति पर कुछ रोक लगायी है. परंतु, इस कदम से विशेष सुधार होगा, इसमें संदेह है. हमारे विश्वविद्यालयों की संस्कृति में पढ़ाना और रिसर्च करना ही समाप्त हो चुका है. हाल में एक केंद्रीय विवि में लेक्चर देने का अवसर मिला. विभाग के प्रमुख ने बताया कि पहले वर्ष में छात्र कक्षा में आते हैं, परंतु दूसरे वर्ष में आना बंद कर देते हैं. मैंने छात्रों से बात की, तो पता लगा कि अध्यापक किताब पढ़ कर रटे-रटाये लेक्चर देते हैं. छात्रों का मानना था कि यदि किताब के लिखे को ही सुनना है, तो घर बैठे किताब पढ़ लेंगे. तात्पर्य यह कि लेक्चर में नवीनता एवं आकर्षण नहीं था. वे अध्यापक रिसर्च भी नहीं करते थे. उनका स्वयं का ज्ञान किताबों तक सीमित था. ऐसे में ईमानदार व्यक्ति को वाइस चांसलर नियुक्त कर दिया जाये, तो भी वह सुधार नहीं ला सकेगा.

मैंने सत्तर के दशक में यूनिवर्सिटी आॅफ फ्लोरिडा में उच्च शिक्षा हासिल की थी. मेरे विभाग में 60 अध्यापकों में केवल 2 की नौकरी पक्की थी. शेष सभी 5 वर्ष के ठेके पर थे. 4 वर्ष के बाद उनके कार्यों का मूल्यांकन होता था, तब तय होता था कि उनके कार्यकाल को बढ़ाया जायेगा कि नहीं. कोर्स के अंत में छात्रों द्वारा अध्यापक का भी मूल्यांकन किया जाता था. इस व्यवस्था में हर अध्यापक का प्रयास रहता था कि वह रिसर्च करे और छात्रों को अच्छे से पढ़ाये, अन्यथा उसकी नौकरी पर संकट मंडराने लगता था. सरकार को चाहिए कि सभी विश्वविद्यालयों में अध्यापकों की नियुक्ति इसी प्रकार 5 वर्षों के लिए करे. स्थायी नियुक्ति की परंपरा को खत्म कर दिया जाये. यह अध्यापकों के हित में होगा कि वे रिसर्च करें और पढ़ायें. आज यदि कोई अध्यापक रिसर्च करता भी है, तो वह दूसरे अकर्मण्य अध्यापकों को बेनकाब करने लगता है. पूरा विभाग भी उसे फेल करने में जुट जाता है.

सरकार को आॅनलाइन शिक्षा के विस्तार के लिए कदम उठाना चाहिए. अमेरिका की अग्रणी मैसेचूसेट्स इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नाेलॉजी ने सर्किट डिजाइन पर एक मुफ्त आॅनलाइन कोर्स चलाया. इसमें 1,54,000 छात्रों ने दाखिला लिया. इनमें से 7,000 छात्रों ने कोर्स पूरा किया. कोर्स पढ़ाने के साॅफ्टवेयर बनाने में जो भी श्रम हुआ हो, छात्रों को पढ़ाने में अध्यापकों की जरूरत नहीं रही. मुख्य बात है कि एक बार कोर्स का साॅफ्टवेयर बन जाने के बाद इससे लाखों छात्रों को पढ़ाया जा सकता है. आज हमारी आइआइटी की फीस दो लाख रुपये प्रति वर्ष है. यदि इन कोर्स को आॅनलाइन कर दिया जाये, तो यह फीस 10,000 रुपये रह जायेगी. आइआइटी में दाखिले का झंझट भी नहीं रह जायेगा. हर छात्र के लिए खुला होगा कि वह कोर्स को आॅनलाइन पूरा करे और आइआइटी की डिग्री प्राप्त कर ले.

अपने देश में साॅफ्टवेयर बनाने की क्षमता चौतरफा उपलब्ध है. लेकिन, स्थापित संस्थाओं द्वारा आॅनलाइन कोर्स को बढ़ावा देने में रुचि ली जायेगी, इसमें संदेह है. प्रोफेसरों को साफ दिखेगा कि आॅनलाइन कोर्स लागू करने के बाद वे स्वयं अप्रासंगिक हो जायेंगे. जिस प्रकार बैंक कर्मियों ने बैंक में कंप्यूटर के उपयोग का विरोध किया था, उसी प्रकार विश्वविद्यालयों द्वारा आॅनलाइन कोर्स का विरोध किये जाने की पूरी संभावना है. अतः सरकार को चाहिए कि आॅनलाइन कोर्स बनाने एवं चलाने को समानांतर व्यवस्था बनाये, जिससे वर्तमान विश्वविद्यालयों की शिथिलता देश के भविष्य को लेकर डुबा न सके. हमारी उच्च शिक्षा का सुधार होगा, तो वैश्विक मानदंडों पर हम सहज ही अव्वल उतरेंगे.

डॉ भरत झुनझुनवाला

अर्थशास्त्री

bharatjj@gmail.com

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