जल्दबाजी ठीक नहीं
मतदान को अनिवार्य बनाने तथा लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ कराने के मुद्दे पर मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी की टिप्पणियां संबंधित बहस में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप हैं. अनिवार्य मतदान को भारतीय संदर्भ में अव्यावहारिक बताते हुए उन्होंने कहा कि मतदान नहीं करनेवाले करोड़ों मतदाताओं को दंडित करना बहुत दुष्कर होगा. पिछले साल गुजरात के […]
इस साल फरवरी में केंद्रीय कानून मंत्री ने अनिवार्य मतदान के लाये गये निजी विधेयक पर अपने बयान में कहा था कि सरकार के लिए ऐसा कानून बनाना और मताधिकार का प्रयोग नहीं करनेवालों को दंडित करना संभव नहीं है. पिछले साल मार्च में विधि आयोग ने भी चुनाव सुधारों पर अपनी रिपोर्ट में इसे नकार दिया था. अनिवार्य मतदान पर बेमानी चर्चा की जगह राजनीतिक दलों और निर्वाचन आयोग समेत सभी संबद्ध पक्षों को लोगों को मताधिकार के बारे में सजग करने की दिशा में प्रयास करना चाहिए. पिछले आम चुनाव में 66.4 फीसदी मतदाताओं की भागीदारी उत्साहवर्द्धक है. मतदाताओं में जागरूकता पैदा करने के लिए चुनाव आयोग निरंतर प्रयासरत रहता है. इसी तरह से लोकसभा और विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराने के मसले पर जोर न देकर राजनीति में बढ़ते धन-बल के इस्तेमाल को लेकर चिंता करना ज्यादा जरूरी है.
इस मसले पर मुख्य चुनाव आयुक्त की राय भी काबिले-गौर है. ऐसी किसी व्यवस्था को अमली जामा पहनाने के लिए संविधान में महत्वपूर्ण संशोधन करने होंगे तथा सभी राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति बनानी होगी. निर्वाचन आयोग को ऐसे बड़े आयोजन के लिए बहुत अधिक संसाधनों की जरूरत भी होगी. इस संदर्भ में देश की विविधता को भी ध्यान में रखना होगा. बीते सात दशकों के अनुभव इस बात के प्रमाण हैं कि भारत में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं का निरंतर सशक्तीकरण हुआ है.
इसे उत्तरोत्तर मजबूत बनाने की राह में भ्रष्टाचार, अपराध और सामाजिक तनाव जैसे कारक ही मुख्य बाधाएं हैं. ऐसे में इनके प्रभाव को समाप्त करने के लिए समुचित उपायों की जरूरत है. आचार-संहिता का उल्लंघन करनेवाले और दागी प्रत्याशियों पर अंकुश लगाने के लिए निर्वाचन आयोग के अधिकारों का दायरा भी बढ़ाना चाहिए. उम्मीद है कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त के बयान के बाद इन बहसों का रुख अधिक सकारात्मक और निर्णायक होगा.