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देशद्रोही बनाम देशभक्त संस्कृति

हमारे मुल्क में कुछ लोग असहमतियों की पहचान के लिए खास शब्द ढूंढते रहे हैं. वह शब्द जमाने के हिसाब से बदलता रहा, लेकिन मकसद नहीं बदला. मकसद है- हमलावर होना. ऐसा माहौल बना देना कि शब्द तब्दील होकर शारीरिक हमला बन जाये. हमारे वक्त का ऐसा ही शब्द है- ‘देशद्रोही/ राष्ट्रद्रोही’. ये लोग असहमतियों […]

हमारे मुल्क में कुछ लोग असहमतियों की पहचान के लिए खास शब्द ढूंढते रहे हैं. वह शब्द जमाने के हिसाब से बदलता रहा, लेकिन मकसद नहीं बदला. मकसद है- हमलावर होना. ऐसा माहौल बना देना कि शब्द तब्दील होकर शारीरिक हमला बन जाये. हमारे वक्त का ऐसा ही शब्द है- ‘देशद्रोही/ राष्ट्रद्रोही’. ये लोग असहमतियों या अलग राय रखनेवालों को ‘देशद्रोही/ राष्ट्रद्रोही’ बना रहे हैं. यह हमारे समय का सबसे ज्यादा तेजी से बंटनेवाला ‘सम्मान’ भी है!
यह वस्तुत: सांस्कृतिक वैचारिक टकराव है. इसमें एक ओर वे लोग हैं, जो खास तरह की एकरंगी तहजीब में यकीन रखते हैं. दूसरी ओर वे हैं, जो देश की विभिन्नता, बहुलतावादी जनसंस्कृति के हिमायती हैं और बेखौफ राय रखने के हक की हिफाजत में लगे हैं. इसलिए जिन्हें ‘देशद्रोही’ का तमगा दिया जा रहा है, उनमें ज्यादातर लेखक, साहित्यकार, फिल्मकार, नाटककार, विचारक यानी संस्कृतिकर्म से जुड़े लोग हैं.
‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के संदर्भ में इसके तीन ताजा उदाहरण हैं. पहला, कुछ दिनों पहले हरियाणा केंद्रीय विवि में महाश्वेता देवी की रचना पर आधारित नाटक ‘द्रौपदी’ का मंचन हुआ. इसके खिलाफ अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (एबीवीपी) ने हंगामा किया. आरोप लगा कि यह नाटक सैनिकों के खिलाफ है. साफ है, इसका मकसद आयोजकों को ‘देशद्रोही’ साबित करना था. दूसरा, पाकिस्तानी कलाकार भारतीय फिल्मों में काम करें या नहीं, उनकी फिल्में दिखायी जायें या नहीं- इस मुद्दे पर बॉलीवुड बंट गया है. फिल्में बनाने और दिखाये जाने के हक में खड़े फिल्मकार सोशल मीडिया पर गाली खा रहे हैं. मुफ्त में इन्हें ‘देशद्रोही’ का खिताब अलग से मिल रहा है!
तीसरा, पिछले दिनों भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) का मध्य प्रदेश के इंदौर में राष्ट्रीय सम्मेलन था, जिसमें 22 राज्यों के 700 से ज्यादा संस्कृतिकर्मी शामिल हुए. वहां रखे गये कुछ विचारों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भाजपा नेताओं ने ‘देशद्रोही’ विचार की श्रेणी में डाल दिया. सम्मेलन हॉल के अंदर कुछ युवा जबरन मंच पर चढ़ गये. हंगामा किया और मारपीट की. इस घटना के बाद व्यक्तियों से परे, ‘देशद्रोही’ होने का ‘तमगा’ एक सांस्कृतिक संगठन को मिल गया.
एक-एक करके ‘देशद्रोहियों’ की तलाश में वक्त लगता है और पहचान की मुश्किल भी होती है. इसलिए इप्टा को ‘देशद्रोही’ कह कर एक साथ पूरे देश के ढेर सारे लोग इकट्ठे निशाने पर ले लिये गये. जो नहीं जानते हैं, उनके लिए यह स्वाभाविक सा सवाल होगा- यह ‘देशद्रोही’ इप्टा क्या है?
भारतीय इतिहास के मध्यकाल में कवियों/सूफियों की मजबूत सांस्कृतिक वैचारिक धारा रही है. इसमें रामदास, कबीर, रैदास, तुलसीदास, मीराबाई, चैतन्य महाप्रभु, बाबा फरीद, गुरु नानकदेव, बुल्लेशाह, नामदेव, रसखान, रहीम जैसी अनेक शख्सीयत हैं. ये अलग-अलग जरूर हैं, पर ये संगठित रूप में जाति-धर्म-विचार की कट्टरता के खिलाफ मानवीय मूल्यों के हक की आवाज हैं. इसके बाद भारत में ऐसा संगठित सांस्कृतिक आंदोलन आजादी के संघर्ष के बीच में उभरता है.
परमाणु ऊर्जा की नींव रखनेवाले वैज्ञानिक डॉक्टर होमी जहांगीर भाभा ने 1943 में इसे नाम दिया- भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा). पहली बार, ढेर सारे कलाकार, चित्रकार, संगीतकार, वैज्ञानिक, मजदूर, किसान, साहित्यकार एक मंच पर आये. अपने गीत-संगीत, नाटक और नृत्यों के जरिये ये आजादी की लड़ाई के अगुआ बने. इनके जरिये ही दुनिया को बंगाल के अकाल की सच्चाई पता चली. धार्मिक-वैचारिक कट्टरता, सामाजिक-आर्थिक गैरबराबरी के खिलाफ मजदूरों, किसानों, महिलाओं के संघर्ष में कंधे से कंधा मिला कर आवाज बुलंद की और आज भी कर रहे हैं. उसने अपने नाटकों को लोगों की जिंदगी का अक्स दिखाने और अपने गीत-संगीत को लोगों की खुशी और तकलीफ को आवाज देने का जरिया बनाया. इप्टा जनता में प्रतिरोध की संस्कृति का हिमायती रहा है.
इप्टा से जुड़े उदय शंकर, पृथ्वीराज कपूर, ऋत्विक घटक, ख्वाजा अहमद अब्बास, बलराज साहनी, अनिल डी’सिल्वा, रशीद जहां, भीष्म साहनी, उत्पल दत्त, सज्जाद जहीर, शैलेंद्र, सलील चौधरी, कैफी आजमी, एके हंगल, शौकत आजमी, अली सरदार जाफरी, प्रेम धवन, बिमल राॅय जैसे लोगों ने नाटक, फिल्म, गीत, संगीत में न सिर्फ नयापन दिया, बल्कि जिंदगी को दिखाने का मजबूत सांस्कृतिक मुहावरा भी दिया. प्रख्यात अभिनेता बलराज साहनी ने कहा था, ‘इप्टा न तो किसी राजनीतिक पार्टी से संबद्ध है, न किसी गुट से. यह ऐसा संघ है, जहां सभी राजनीतिक दलों और गैरराजनीतिक लोगों का स्वागत है. इसका सदस्य होने की एकमात्र शर्त है- देशभक्ति, अपनी संस्कृतिक पर गर्व. मैं इप्टा का बहुत बड़ा कर्जदार हूं. जो शोहरत मुझे मिली, वह इप्टा में काम करने की वजह से ही मिली.’
भारतीय सांस्कृतिक क्षितिज पर इप्टा के उभरने से पहले और बाद के संस्कृतिकर्म में इस संगठन की छाप साफ देखी जा सकती है. यह एक वैचारिक सांस्कृतिक छाप है. यहां कला का मतलब जिंदगी है. इसीलिए इप्टा के बैनर तले बनी फिल्म ‘धरती के लाल’ आज के किसानों और मजदूरों की कहानी लगती है. अगर आज 75वीं सालगिरह के करीब पहुंचा यह संगठन देश के कोने-कोने में धड़क रहा है, तो जाहिर है उसके सांस्कृतिक विचार में कुछ अलग बात होगी. इसीलिए, इप्टा की सांस्कृतिक धारा के कई केंद्र बने और वे फल-फूल रहे हैं. शायद यही वजह है कि इप्टा कुछ लोगों की आंख की किरकिरी है. कहीं ऐसा न हो कि ‘सम्मान’ बांटने की होड़ में देश के बहुसंख्य, बहुलतावदी संस्कृति वाले लोग ‘देशद्रोही/राष्ट्रद्रोही’ बन जायें.
अब जरा गुनगुनाते हैं-
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा… हमारा…
क्या हमें पता है कि इस तराना की धुन कहां बनी और किसने बनायी? यह धुन इप्टा के झंडे तले बनी. इसे मशहूर संगीतकार पंडित रविशंकर ने सुरों में संजोया था. इप्टा का कहना है- उसका असली नायक जनता है और वह सबके लिए एक सुंदर दुनिया का ख्वाब देखता है. तो इप्टा देशभक्त या देशद्रोही?
तनिक रुकिये, फिर तय कीजिये. कहीं हम हमलावर संस्कृति के साथ तो नहीं खड़े हो रहे हैं?
नासिरुद्दीन
वरिष्ठ पत्रकार
nasiruddinhk@gmail.com

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