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फिर चुनाव सुधार की कवायद

।। धर्मेद्रपाल सिंह।। (वरिष्ठ पत्रकार) किसी भी राजनीतिक दल ने चुनाव आयोग और विधि आयोग से चुनावी खर्च सीमा में बढ़ोतरी की मांग नहीं की है फिर भी इस मुद्दे पर उनसे चरचा हो रही है. आम चुनाव नजदीक आते ही चुनाव सुधार का दिखावा फिर शुरू हो गया है. पेड न्यूज, स्टेट फंडिंग, उम्मीदवारों […]

।। धर्मेद्रपाल सिंह।।

(वरिष्ठ पत्रकार)

किसी भी राजनीतिक दल ने चुनाव आयोग और विधि आयोग से चुनावी खर्च सीमा में बढ़ोतरी की मांग नहीं की है फिर भी इस मुद्दे पर उनसे चरचा हो रही है. आम चुनाव नजदीक आते ही चुनाव सुधार का दिखावा फिर शुरू हो गया है. पेड न्यूज, स्टेट फंडिंग, उम्मीदवारों द्वारा झूठे शपथपत्र दाखिल करने, चुनाव खर्च कम बताने, अदालत में चाजर्शीट हुए प्रत्याशियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने जैसे मुद्दों पर आम सहमति बनाने की कसरत की जा रही है. चुनाव सुधार की ऐसी कोशिश बीते 24 बरस से हो रही है, पर चुनाव सुधार विधेयक बीते दो दशक से संसद की मंजूरी की बाट जोह रहा है. नतीजा, देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था धनबल और बाहुबल के दलदल में धंसती जा रही है. इसके लिए कमोबेश सभी बड़े दल दोषी हैं.

चुनाव सुधार के लिए सुप्रीम कोर्ट में दायर जनहित याचिका पर आगामी अप्रैल में सुनवाई होनी है. उससे पहले विधि आयोग को अदालत में अपनी सिफारिश दाखिल करनी है. चुनाव व्यवस्था में सुधार या संशोधन की जिम्मेवारी कानून मंत्रलय की होती है. वही कंडक्ट ऑफ इलेक्शन रुल्स-1961 तथा लोक प्रतिनिधि अधिनियम-1951 में रद्दो-बदल कर सकता है. विधि आयोग और चुनाव आयोग की हैसियत केवल सुझाव देने की है. उनकी सिफारिश मानना, न मानना सरकार या कानून मंत्रलय की इच्छा पर निर्भर करता है.

फिलहाल लोकसभा लड़नेवाले प्रत्याशी अधिकतम 40 लाख तथा बड़े राज्यों के विधानसभा चुनाव में खड़े होनेवाले उम्मीदवार 16 लाख रुपये खर्च कर सकते हैं. दिलचस्प यह है कि प्रत्याशी चुनाव आयोग को दिये ब्योरे में अपना खर्च तय सीमा से कम ही दिखाते हैं, जबकि करोड़ों रुपये फूंकते हैं. चुनावों में खुल कर कालेधन का इस्तेमाल होता है और नंबर दो का यह पैसा कॉरपोरेट और अपराध जगत का उपहार होता है. इसी वजह से राजनीतिक दल और नेता चंदे का स्नेत बताने को राजी नहीं हैं. पिछले साल मुख्य सूचना आयुक्त ने सभी राष्ट्रीय दलों को सूचना के अधिकार कानून के तहत लाने का फैसला सुनाया था, जिस पर आज तक अमल नहीं हो पाया है. इस आदेश को निष्प्रभावी बनाने के लिए सरकार ने संशोधन प्रस्ताव पेश किया जो अब संसद में विचाराधीन है.

विधि आयोग ने एक बरस पहले सभी पार्टियों और सांसदों से सुझाव मांगे थे. अब तक केवल कांग्रेस और कुल आठ सांसदों ने ही पलटवार जवाब भेजा है. चुनाव सुधार के लिए सबसे पहले 1990 में गोस्वामी समिति गठित की गयी. इसके बाद वोहरा समिति (1993) तथा इंद्रजीत गुप्त समिति (1998) ने भी अपनी रिपोर्ट दी. विधि और चुनाव आयोग भी समय-समय पर कारगर सुझाव देते रहे हैं. सारी रिपोर्ट और समस्त सुझाव सरकारी दफ्तरों में धूल फांक रहे हैं. अदालत से सजा प्राप्त जनप्रतिनिधियों की संसद और विधानसभा सदस्यता समाप्त करने तथा उन्हें चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित करने का कानून भी सुप्रीम कोर्ट की कृपा से बना है. सरकार ने तो इस कानून में पेच फंसाने की पूरी तैयारी कर ली थी, किंतु जन विरोध देख कर उसे अपना कदम पीछे लेना पड़ा.

चुनाव को कालेधन के कुचक्र से निकालने के लिए कुछ राजनीतिक दल, न्यायविद्, शिक्षाविद् और सिविल सोसायटी के सदस्य वर्षो से प्रयासरत हैं. कुछ बड़े दल और प्रभावशाली नेता इसके प्रबल विरोधी हैं. उन्हें लगता है यदि राज्य की मदद मिलने लगी तो चुनाव लड़ने का उनका एकाधिकार समाप्त हो जायेगा. आज आम आदमी वोट तो दे सकता है, चुनाव लड़ने का सपना नहीं देख सकता. गौरतलब है कि लोकतंत्र को धन से मुक्त कराने के लिए 71 देशों में स्टेट फंडिंग व्यवस्था लागू है.

असल में मौजूदा चुनाव प्रणाली छेदों से भरी पड़ी है. इसे समझने के लिए एक उदाहरण काफी है. माना जाये कि देश में 80 करोड़ मतदाता हैं और आम चुनाव में 60 प्रतिशत वोट पड़े, तो इसका अर्थ यह हुआ कि केवल 48 करोड़ लोगों ने ही मतदान में भाग लिया. मौजूदा स्थिति में 35 फीसदी वोट पानेवाला दल या गंठबंधन सरकार बना लेता है. यानी करीब 17 करोड़ मत पानेवाले दल को देश पर पांच साल हुकूमत करने का हक मिल जाता है. सवा अरब की आबादी वाले देश में महज 17 करोड़ लोगों के समर्थन से सरकार बनायी जा सकती है. यह मजाक ही तो है. इसके मद्देनजर कुछ जागरूक लोग हर पार्टी को प्राप्त वोट प्रतिशत के आधार पर संसद और विधानसभाओं में सीट देने की मांग उठा रहे हैं. एक सुझाव यह भी है कि चुनाव जीतने के लिए किसी भी प्रत्याशी के लिए कम से कम 51 फीसदी वोट पाने की शर्त लागू कर दी जाये. ऐसे कई सुझाव हैं, जिन पर अमल के लिए राजनीतिक दलों की आम सहमति जरूरी है. फिलहाल आम सहमति के आसार नजर नहीं आते. राजनीतिक दल जन दबाव के आगे ही झुकते हैं. दबाव बनाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. इसे ज्यादा समय तक टाला नहीं जा सकता.

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