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दीवाली के ये दिन और वे दिन

प्रभात रंजन कथाकार रावण का पुतला जलता है कि दीवाली की याद आने लगती है. जैसे-जैसे दीवाली करीब आती जाती है, सुबह-सुबह मौसम में ठंड की खुनक बढ़ने लगती है. आजकल मैं अपनी बेटी को बेताबी के साथ दीवाली का इंतजार करते देखता हूं, तो मुझे अपने बचपन के दिन याद आ जाते हैं. दीवाली […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 27, 2016 6:30 AM

प्रभात रंजन

कथाकार

रावण का पुतला जलता है कि दीवाली की याद आने लगती है. जैसे-जैसे दीवाली करीब आती जाती है, सुबह-सुबह मौसम में ठंड की खुनक बढ़ने लगती है. आजकल मैं अपनी बेटी को बेताबी के साथ दीवाली का इंतजार करते देखता हूं, तो मुझे अपने बचपन के दिन याद आ जाते हैं.

दीवाली का जो रोमांच बचपन में रहता है, उम्र बढ़ने के साथ शायद वह समाप्त होता जाता है. मुझे अपने दादाजी की वह बात याद आ जाती है, जो अक्सर दीवाली आने से पहले हम बच्चों से कहा करते थे- तुम्हारी तो दीवाली है, हमारा दीवाला है! असल में हम जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं, जमा-खर्च के जोड़ में पड़ते जाते हैं और दीवाली के उत्साह, उसके रोमांच के ऊपर खर्चे का तनाव बढ़ता जाता है. साल में आप दशहरा पर नये कपड़े पहनें या न पहनें, किसी और पर्व त्योहार पर नये कपड़े पहनें या न पहनें दीवाली पर घर भर के लिए नये कपड़े जरूर आने चाहिए.

जब मैं अपने बचपन की दीवाली में लौटता हूं, तो नेपाल के सीमा से सटे अपने गांव में पहुंच जाता हूं, जब साल भर दीवाली का इंतजार हम इसलिए करते थे कि हमें दीवाली के कपड़े खरीदने के लिए नेपाल के सीमावर्ती शहर जनकपुर जाने का मौका मिलता था. वहां पॉलिएस्टर के सस्ते कपड़े मिलते थे, जो पहनने में कैसे होते थे, यह तो समझ में नहीं आता था, लेकिन देखने में खूब चमकते थे और उनके ऊपर इस्तरी भी नहीं करनी पड़ती थी. नेपाल जाने का आकर्षण इसलिए रहता था, क्योंकि पहले के उस दौर में इतने बड़े-बड़े बाजार देखने को हमें वहीं मिलते थे, जहां सिर्फ ‘फॉरेन गुड्स’ भरे रहते थे. सबसे अधिक मजा हमें साल में एक बार पेप्सी या कोका कोला पीने का मौका मिलने पर आता था, तब भारत में इन ब्रांड्स का आगमन नहीं हुआ था.

दिन भर जनकपुर के बाजारों में घूमना, दो या तीन बोतल कोल्ड ड्रिंक पीकर जब शाम की बस पकड़ कर हम अपने गांव की तरफ लौट रहे होते थे, तो एक तरह से हमारी दीवाली की शुरुआत हो चुकी होती थी.

उसके बाद से कभी पापा, कभी दादाजी, कभी मामा के साथ हम दीवाली की खरीदारी के लिए जाते रहते थे- दीये, बाती, लक्ष्मी गणेश की मूर्तियां, मिट्टी का तेल, धोती, साड़ी. सबसे बढ़ कर पटाखे. इसी तरह छोटी-छोटी चीजों को जोड़ते हुए दिन निकलते जाते थे और हमारे जीवन में एक बार और वह बड़ा दिन आता था, जिसे दीवाली कहते थे. हम भाई-बहन होड़ लगा कर पटाखे छोड़ते थे. मेरे एक चाचा को पटाखों की आवाजों से बड़ी चिढ़ थी, तो उनके घर के बाहर जाकर रात में पटाखे छोड़ देते थे. और नहीं कोई मिलता था, तो कुत्तों को डराते हुए फुलझड़ियां छोड़ते थे. दाल की पूड़ी और खीर खाते और सो जाते थे.

अभावों की उस दीवाली में जो रोमांच था, जो सुख था, अब वह कहीं नहीं मिलता है. अब जीवन भावों से भरा हुआ है. लेकिन याद वही अभाव के दिन आते हैं, जब दीवाली गांव भर में लुकारी भांजने का नाम होता था. धूल भरे गांव में अचानक सबको नये-नये कपड़ों में देखने का नाम होता था.

ऑनलाइन खरीदारी, सेल की इस रेलमपेल में वह सुख कहां, जो पांच रुपये का टिकट कटा कर नेपाल के शहर जनकपुर कपड़े खरीदने जाने में होता था. जब मैंने अपनी बेटी को नेपाल जाने का यह किस्सा बताया, तो उसको बड़ा आश्चर्य हुआ कि दिन भर हम यात्रा सिर्फ एक कपड़ा खरीदने के लिए करते थे? हर अखबार में कई-कई पन्नों के विज्ञापन ऑनलाइन सेल के आ रहे हैं. सामानों के लिए ऑर्डर करते हुए दीवाली के वे दिन याद आ रहे हैं!

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