हंसी-खुशी के भाव का भला आत्मघाती किस्म की आक्रामकता से क्या रिश्ता हो सकता है? लेकिन, देश की राजधानी दिल्ली में दीवाली पर बीते कई सालों से यही हो रहा है. संकरी गलियों से लेकर चौड़ी सड़कों तक लोग त्योहार की खुशी को आतिशबाजी के जरिये उन्माद की ऊंचाई तक ले जाने के लिए आतुर दिखते हैं. देश में प्रति व्यक्ति औसत वार्षिक आय करीब 77 हजार रुपये है और हालिया आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली में प्रति व्यक्ति औसत सालाना आमदनी इससे ढाई गुना ज्यादा है.
शायद एक वजह यह भी है, जो ढलती शाम से लेकर बीती रात तक पटाखों की शक्ल में टनों रुपये राख हो जाते हैं. पटाखों की कानफोड़ू आवाज के भीतर अपनी खुशहाली का गूंज सुननेवाली यही भीड़ अगली सुबह जब दफ्तर, स्कूल, अस्पताल, बाजार जैसे अपने रोजमर्रा के ठिकानों के लिए निकलती है, तो उसका चेहरा हवा में फैली बारूदी धुंध से काला होने लगता है, आंखों से पानी बहता है, सांस लेने में दिक्कत होती है.
ऐसे में यही भीड़ आपस में एक-दूसरे से अफसोस जताती है कि ओह! दिल्ली तो दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित महानगरों में एक है. यह भीड़ कभी नहीं सोचती कि पहले से प्रदूषित चले आ रहे इस महानगर को और ज्यादा प्रदूषित करने में उसके पटाखों का भी योगदान है और पटाखों का बारूदी धुआं बच्चे, बुजुर्ग, गर्भवती स्त्रियों के ही लिए नहीं, बल्कि अपने को सेहतमंद माननेवालों के लिए भी जानलेवा साबित हो रहा है.
दिल्ली में दीवाली पर इस साल भी हंसी-खुशी की आक्रामकता पहले की तरह दिखी. पटाखों के धुएं से बनी धुंध इतनी गहरी थी कि 200 मीटर दूर की चीजें भी साफ-साफ नजर नहीं आ रही थीं. दीवाली की सुबह दिल्ली के एक छोर आनंद विहार इलाके में सेहत के लिए खतरनाक पार्टिकुलेट मैटर 2.5 की मात्रा प्रति घनमीटर 702 थी, तो दूसरे छोर पर अमेरिकी दूतावास वाले इलाके में 999. यह विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित सीमा से क्रमशः सात और दस गुना ज्यादा है.
हवा में इस तत्व का बढ़ना सेहत के लिए कितना खतरनाक हो सकता है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि दिल्ली के स्कूली बच्चों में कम-से-कम 40 फीसदी सांस की किसी-न-किसी बीमारी से पीड़ित हैं. यह तथ्य बीते साल ब्रेथ ब्लू और हील फाउंडेशन के एक अध्ययन से सामने आया था.
आतिशबाजी के प्रति यह दीवानगी सिर्फ दिल्ली तक सीमित नहीं है. मुंबई और कोलकाता जैसे महानगर हों या पुणे और बेंगलुरू जैसे समृद्धि के नये ठिकाने या फिर अन्य राज्यों की विकासशील राजधानियां या उनके छोटे शहर, हर जगह प्रति व्यक्ति औसत आमदनी में वृद्धि के साथ-साथ उपभोग की क्षमता बढ़ी है और यह बढ़ी हुई क्षमता दीवाली जैसे त्योहारों की ओट में अपने को बहुत आक्रामक ढंग से व्यक्त करने लगी है. इससे शहर पटाखों की बारूदी धुंध से ढंक जाते हैं और सांस की बीमारी का जानलेवा घेरा लोगों की गर्दन को कसने लगता है.
याद रखने की एक बात यह भी है कि वायु-प्रदूषण की मार धनिकों की तुलना में गरीबों पर ज्यादा पड़ती है. मिसाल के तौर पर, बीते साल इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइंसेज के एक सर्वेक्षण से खुलासा हुआ कि मुंबई की झुग्गी-झोपड़ियों में 89 फीसदी मौतों का कारण सांस के रोग हैं और इसका सीधा रिश्ता बढ़ते हुए वायु प्रदूषण के बीच गरीब-बस्तियों में घटती स्वास्थ्य सुविधाओं से है.
दुनिया के सर्वाधिक प्रदूषित 20 शहरों में 13 अकेले भारत में हैं और जियो फिजिकल रिसर्च जर्नल में प्रकाशित एक नये शोध के मुताबिक सांस के रोगों के कारण भारत में फिलहाल हर साल पांच लाख लोगों की मौत हो रही है. गले और फेफड़े की बीमारियों में बड़ी तेज गति से इजाफा हुआ है और चिकित्सा विज्ञानियों की मानें, तो इसके लिए काफी हद तक बढ़ता हुआ वायु प्रदूषण जिम्मेवार है.
भारत की नेशनल हेल्थ प्रोफाइल रिपोर्ट (2015) के तथ्यों का इशारा भी इसी ओर है. इस रिपोर्ट के मुताबिक देश में सांस के गंभीर रोग के साढ़े तीस लाख मामले 2015 में प्रकाश में आये. वर्ष 2014 की तुलना में सांस के गंभीर रोगों के मामलों में 1.4 लाख की बढ़ोतरी हुई.
अगर पिछले पांच साल की अवधि का आकलन करें, तो रिपोर्ट के अनुसार सांस के गंभीर रोगों से पीड़ित मरीजों की संख्या में 30 फीसदी का इजाफा हुआ है. सांस के रोगों का बढ़ना एक तरफ जहां मानव-संसाधन की हानि की सूचना है, तो दूसरी तरफ हमारी जीवनशैली और उसकी प्राथमिकताओं पर एक तल्ख टिप्पणी. विकास और उपभोग की जिन प्राथमिकताओं का मेल प्रकृति और पारिस्थितिकी की रक्षा और संवर्धन से न हो, वे आत्मघाती साबित हो सकती हैं.
सांस के रोग के कारण बढ़ती मौतों का सिलसिला और बीमार फेफड़ेवाले स्कूली बच्चों की बढ़ती संख्या अपने आप में एक भयावह चेतावनी है कि हम अपनी खुशी की मर्यादा को न लांघें, उसे आक्रामक होने से बचाने की हर मुमकिन कोशिश करें, वरना दीवाली के बहाने आतिशबाजी के प्रति बढ़ता उन्माद आगे और भी जानलेवा सिद्ध होगा.