अन्याय से भिड़नेवालों की याद में

।। प्रमोद जोशी ।। वरिष्ठ पत्रकार दुर्भाग्य है कि सत्येंद्र दुबे या मंजुनाथ जैसों को हम पद्म पुरस्कारों के लायक नहीं समझते. और न उन लोगों को सहारा देते हैं, जो व्यवस्था को सड़न से रोकना चाहते हैं. लोकतांत्रिक संग्राम के असली योद्धा तो ये लोग ही हैं.कर्नाटक में पला-बढ़ा नौजवान था षण्मुगम मंजुनाथ, जिसने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 11, 2014 6:26 AM

।। प्रमोद जोशी ।।

वरिष्ठ पत्रकार

दुर्भाग्य है कि सत्येंद्र दुबे या मंजुनाथ जैसों को हम पद्म पुरस्कारों के लायक नहीं समझते. और न उन लोगों को सहारा देते हैं, जो व्यवस्था को सड़न से रोकना चाहते हैं. लोकतांत्रिक संग्राम के असली योद्धा तो ये लोग ही हैं.कर्नाटक में पला-बढ़ा नौजवान था षण्मुगम मंजुनाथ, जिसने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, लखनऊ से एमबीए किया. इंडियन ऑयल की सेवा में लखनऊ में तैनात मंजुनाथ को मिलावटी पेट्रोल बेचे जाने की शिकायतें मिलीं, तो उसने लखीमपुर खीरी के दो पंपों को सील कर दिया. तीन महीने बाद जब पंप फिर से खोले गये, तो मंजुनाथ ने तय किया कि अचानक जाकर जांच की जाये कि वहां अब काम किस तरह हो रहा है. मंजुनाथ 19 नवंबर, 2005 को जांच के लिए गया. तीन दिन से बेटे के साथ संपर्क नहीं होने के कारण उसके पिता ने उस रात बेटे को एसएमएस किया- कहां हो, क्या हाल-चाल? उसका जवाब नहीं मिला. गोलियों से बिंधी उसकी लाश मिली.

सत्येंद्र कुमार दुबे भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण में परियोजना निदेशक के पद पर कार्यरत थे. उन्होंने स्वर्णिम चतुभरुज परियोजना में व्याप्त भ्रष्टाचार को सामने लाने की कोशिश की थी. उनकी हत्या 27 नवंबर, 2003 को बिहार के गया जिले में कर दी गयी. सत्येंद्र ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को पत्र लिखा था, जिसमें अनुरोध किया गया था कि इस पत्र को गोपनीय रखा जाये. वह पत्र बाहर आ गया. सत्येंद्र की हत्या के बाद देश में व्हिसिल ब्लोअर को संरक्षण की बात शुरू हो गयी. 2011 में गणतंत्र दिवस के ठीक एक दिन पहले महाराष्ट्र में पेट्रोल माफिया ने अपर जिलाधिकारी यशवंत सोनावणो को जमीन पर गिराया और मिट्टी तेल छिड़क कर आग लगा दी. उनकी मदद के लिए कोई आगे नहीं आया. उनकी लाश सड़क पर पड़ी रही.

आजादी के 67 साल का अनुभव है कि देश में अपराधी और माफिया स्वच्छंद होते गये और ईमानदार अधिकारी असुरक्षित. जनता को जानकारी पाने का अधिकार मिलने के बाद से दो किस्म की खबरों की संख्या बढ़ी है. पहली, इस अधिकार का इस्तेमाल करते हुए ब्लैकमेलिंग की या फिर आरटीआइ कार्यकर्ताओं की हत्या की. देश में 40 से ज्यादा आरटीआइ कार्यकर्ताओं की हत्याएं हुई हैं. दूसरी, प्रशासनिक, राजनीतिक और कारोबारी व्यवस्थाएं जटिल होती जा रही हैं. मनी और मसल पावर तराजू के पलड़े को अपनी तरफ झुकाने में कामयाब हो रही हैं. ऐसे में ईमानदारी और ईमानदारों को कौन बचायेगा? व्यवस्था पर क्रोनी कैपिटलिस्ट और बाहुबली हावी हैं. बातचीत को आगे बढ़ाने के पहले एक और उदाहरण सामने रखना बेहतर होगा.

भारत की कंपनी रैनबैक्सी की दवाओं पर अमेरिका में रोक लगा दी गयी. 2008 से यह कंपनी एक जापानी कंपनी दाइची सैंक्यो के नियंत्रण में है. इस पर क्लिनिकल ट्रायल के फर्जी आंकड़े देने और मानकों का उल्लंघन करने के आरोप थे. कंपनी ने मई, 2013 में इन आरोपों के कारण 50 करोड़ डॉलर का जुर्माना भी भरा था. अनेक आरोपों की पुष्टि उसके ही एक अधिकारी दिनेश ठाकुर की भंडाफोड़ शिकायत (व्हिसिल ब्लोअर कम्प्लेंट) से हुई थी, जो उन्होंने 2007 में की थी.

भारतवंशी दिनेश ठाकुर ने अमेरिका में शिक्षा ग्रहण की थी और वे अमेरिका में जन्मे होने के कारण वहां के सहज और सजग नागरिक हैं. 2002 में वे एक बड़ी कंपनी को छोड़ कर यहां आये थे. भारत में उन्हें काम-काज के तरीके में खामियां दिखाई पड़ीं. बाद में उन्हें इस कंपनी से इस्तीफा देना पड़ा. उनको इस भंडाफोड़ के लिए अमेरिका के संघीय व्हिसिल ब्लोअर कानून के तहत 4 करोड़ 80 लाख डॉलर (280 करोड़ रुपये) से ज्यादा की राशि मिली, जो कंपनी पर लगे जुर्माने में से काटी गयी. अमेरिका में यह कानून 1778 से काम कर रहा है, लेकिन उस वक्त इस कानून का नाम व्हिसिल ब्लोअर एक्ट नहीं था.

विभीषण की मदद न मिलती तो राम की लड़ाई अधूरी रह जाती. पर हमारे यहां कोई अपने बच्चे का नाम विभीषण रखना नहीं चाहता. व्हिसिल ब्लोअर हमारे लिए नया शब्द है, अवधारणा भी नयी है. अमेरिका में इस शब्द का इस्तेमाल बीसवीं सदी में सत्तर के दशक में शुरू हुआ. आशय था कि इनफॉर्मर, मुखबिर और खबरी जैसे नकारात्मक शब्दों की जगह इसका इस्तेमाल हो. भारत में सत्येंद्र दुबे की हत्या के बाद ऐसे कानून बनाने की मांग ने जोर पकड़ा, जो अनियमितताओं और अपराधों का भंडाफोड़ करनेवालों की मदद करे. लोकपाल बिल को लेकर मचे शोर में इस पर चरचा नहीं हो पायी, हालांकि यह भी 27 दिसंबर, 2011 को लोकसभा से पास हुआ था और अभी राज्यसभा में पड़ा है. नागरिकों को समयबद्ध सेवाएं सुनिश्चित करने वाला बिल भी तभी संसद में पेश किया गया था.

दिसंबर में दिल्ली विधानसभा के चुनावी नतीजे आने पर राहुल गांधी को अचानक इन कानूनों की याद आयी. देखते ही देखते लोकपाल बिल पास हो गया और अब राहुल के ‘छह हथियारों’ में ये दो बिल भी शामिल हैं. हाल में राष्ट्रपति ने हरियाणा काडर के एक अधिकारी की प्रार्थना को स्वीकार किया. राज्य सरकार ने उस अधिकारी की व्यक्तिगत रिपोर्ट बिगाड़ दी थी. अशोक खेमका से लेकर दुर्गाशक्ति तक अनेक ऐसे मामले सामने हैं, जिनमें सरकारी फैसलों को लेकर जनता के मन में शंकाएं हैं.

सरकारी सेवाओं में भीतरी प्रताड़नाओं को क्या अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए? संरक्षण क्या सरकारी सेवाओं में ही चाहिए? और क्या केवल सरकारी अधिकारियों के कोप से चाहिए, राजनेताओं से नहीं? निजी क्षेत्र में सत्यम मामले ने व्यवस्था की पोल खोल दी. तमाम तरह के घोटाले पनप रहे हैं. लेकिन इन्हें सामने लाने की हिम्मत रखनेवाले लोग भी हैं. उन्हें कौन सहारा देगा? क्या इस बिल में वे सारी व्यवस्थाएं हैं, जो होनी चाहिए? मोटे तौर पर यह कानून कमजोर लगता है. पर जैसा भी है, उसे पास होना चाहिए. अफसोस इस बात का है कि ऐसे मसलों पर न तो मीडिया में बहस है और न ही संसद में.

दुर्भाग्य है कि सत्येंद्र दुबे या मंजुनाथ जैसों को हम पद्म पुरस्कारों के लायक नहीं समझते. और न उन लोगों को सहारा देते हैं, जो व्यवस्था को सड़न से रोकना चाहते हैं. लोकतांत्रिक संग्राम के असली योद्धा तो ये लोग ही हैं. पिछले साल अगस्त में संसद सत्र के दौरान व्हिसिल ब्लोअर संरक्षण विधेयक राज्यसभा में विमर्श के लिए आया था, पर सदन स्थगित हो जाने के बाद वह पास नहीं हो पाया. संसद के वर्तमान सत्र के पांच दिन गुजर गये हैं. इन कानूनों को सदन के आखिरी सत्र के आखिरी दिनों में जल्दबाजी में पास कर भी दिया जाये, तो मतलब साफ है कि राजनीति की दिलचस्पी नहीं थी. यानी मजबूरी में पास किया. संसद बहुत कुछ कर सकती है. उसे कुछ करना भी होगा.

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