परिवार टूटने के प्रतिरोध का पर्व

चंदन श्रीवास्तव एसोसिएट फेलो, कॉमनकॉज त्योहारों के साथ एक या एकाधिक कथाएं जुड़ी होती हैं. ये कथाएं न सिर्फ त्योहार की परंपराओं को संजोती हैं, बल्कि उनमें नये रंग भी भरती हैं. इसी कड़ी में कुछ कथाएं छठ-पूजा के संबंध में भी प्रचलित हैं. लेकिन, पंडितजी की पोथी से निकली पौराणिक कथाएं छठ-पूजा की आभा […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 2, 2016 6:40 AM

चंदन श्रीवास्तव

एसोसिएट फेलो, कॉमनकॉज

त्योहारों के साथ एक या एकाधिक कथाएं जुड़ी होती हैं. ये कथाएं न सिर्फ त्योहार की परंपराओं को संजोती हैं, बल्कि उनमें नये रंग भी भरती हैं. इसी कड़ी में कुछ कथाएं छठ-पूजा के संबंध में भी प्रचलित हैं. लेकिन, पंडितजी की पोथी से निकली पौराणिक कथाएं छठ-पूजा की आभा के आगे फीकी जान पड़ती हैं. पूरब के इस विशिष्ट त्योहार का मर्म समझने के लिए तो बस लोक-कंठ से फूटते छठ-गीतों में अपना कंठ मिलाना होगा. ये गीत ही छठ-पूजा के मर्म हैं, मंत्र हैं.

छठ-पूजा से जुड़े गीतों के केंद्र में संतान, निरोगी काया और अन्न-धन-जन से भरपूर जीवन की कामनाएं होती हैं. दैहिक, दैविक, भौतिक- त्रिविध तापों (दुखों) को दूर करने की प्रार्थना के स्वरवाला ‘छठ’ पुरबियों के बीच घनघोर पारिवारिकता का भी पर्व है. पूरब में मनाये जानेवाले अन्य पर्व-त्योहारों से अलग और विशिष्ट है छठ पर्व. याद करें, छठ से पहले पड़नेवाले पर्व तीज, जिऊतिया (जीवितपुत्रिका) या फिर शारदीय नवरात्र को. तीज- ‘सुहाग’ यानी अखंड दांपत्य-भाव के निमित्त मनाया जाता है.

जिऊतिया- एक मां द्वारा विशिष्ट रूप से अपनी संतान की जीवन-कामना के निमित्त की गयी प्रार्थना है. नवरात्रि- जगदंबा को पूजने की नौ रातें शरीर-घट में सुप्त शक्ति की जागरण-आराधना है. इन पर्वों में परिवार तो है, लेकिन अवांतर रूप में ही; वह सहायक होता है, केंद्र में नहीं होता. तीज, जिऊतिया व नवरात्र- तीनों में साधक के तौर पर व्यक्ति ही प्रधान है.

लेकिन छठ, इसकी तो कल्पना भी परिवार के बगैर नहीं की जा सकती! जिसे ‘कोसी भरना’ कहते हैं, उसके लगनेवाली ईख की संख्या (पांच, सात, नौ) कोसी भराई के क्रम में एक से ज्यादा हाथों की अपेक्षा रखती है. इस अपेक्षा में यह शामिल है कि कोसी भराई को उठे हाथ अपने घर-आंगन के ही हों. कोसी भराई के क्रम में रखने जानेवाले दीपों (कहीं बारह, कहीं चौबीस) को अपेक्षा होती है कि उन्हें एक से ज्यादा हाथों से प्रज्ज्वलित करनेवाले हों. घर बेटा-बहू, बेटी-दामाद, भाई-भतीजा, नाती-पोते से भरा रहे- ‘कोसी भराई’ इस कामना को साकार करती है.

याद करें, छठ घाट पर प्रथम अर्घ्य के लिए दऊरा ले जाने का दृश्य. ‘परवैतिन’ के कंठ से उगनेवाले गीतों में कौन सी चिंता सबसे पहले फूटती है? यही कि ‘दऊरा के लेके जाय?’, अगर दऊरा का छठ घाट पर प्रथम अर्घ्य के लिए पहुंचना जरूरी है, तो फिर यह भी जरूरी चिंता है कि यह दऊरा किसके माथे की शोभा बढ़ाता हुआ छठ घाट तक पहुंचे! उसे पहुंचानेवाला माथा अपने घर का ही होना चाहिए. अर्घ्य के सूप जितने ज्यादा होंगे, उतना ही अच्छा. सूप जितने ज्यादा होंगे, दऊरा भी उतने ही होंगे, यानी घर में दऊरा ढोनेवाले ज्यादा-से-ज्यादा माथा हों.

कभी सोचियेगा, वह जो ‘कांच ही बांस की बहंगिया’ है, वह बांस के कच्चे होने के कारण लचकती है या फिर गीत में यह भी अपेक्षा है कि लचकती हुई यह बहंगी घर के पुरुषों के मजबूत कंधे पर चढ़ कर छठ घाट तक जाये!

अचरज नहीं कि छठ-पूजा में ‘परवैतिन’ के गीतों में छठीमइया के बारे में कल्पना है उनका भी एक ससुराल और मायका है (कहीं-कहीं उल्लेख मिलता है कि संध्या और प्रत्यूषा नाम से सूर्य की दो पत्नियां हैं, इसीलिए पहला अर्घ्य संध्या के समय पड़ता है, जबकि दूसरा अर्घ्य प्रत्यूषा यानी भोर के पहर) और छठीमइया अपने ससुराल से ढाई दिन के लिए मायके आती हैं. भरे-पूरे परिवारवाली छठीमइया से परवैतिनें भरा-पूरा पारिवारिक जीवन ही तो मांगती हैं. छठ के एक गीत में आता है-

नैहर मांगी ला भाई रे भतीजवा, ससुरा सकल परिवार ये छठी.

अपना के मांगीला अवध सिन्होरवा, जनम जनम अहिवात ये छठी…

सभवा बैठन के बेटा मांगीला, डोलिया चढ़न के पतौह ये छठी.

रुनुकी झुनुकी एक बेटी मांगीला- घोड़वा चढ़न के दामाद ये छठी…

सैकड़ों साल से पूर्वांचल ‘प्रवास’ शब्द से परिभाषित होता आया है. असम के चाय बगानों से लेकर मॉरीशस के गन्ना-खेतों तक को हम पूरबियों ने अपने परिश्रम से सींचा है. हमारा इतिहास हमारे परिवार के टूटते चले जाने का इतिहास है. हम पुरबियों को पहले रेलगाड़ी कलकत्ता और गोहाटी ले जाती थी, आज वह दिल्ली, बेंगलुरु और लुधियाना ले जाती है. बेटे-बहू, बेटी-दामाद, सब परदेसी! घर अपनी वीरानी पर पछताता है.

छठ-पूजा प्रवास के इस करुण इतिहास से जुड़े पारिवारिक विघटन के प्रतिरोध का पर्व है, शहरीकरण के खिलाफ खेतिहर समाज के प्रतिरोध का पर्व. हर साल छठ-पूजा पर दिल्ली से स्पेशल रेलगाड़ियां खुलती हैं, तो इसलिए कि पूरब में हजारों जोड़ी आंखें रास्ते ताक रही होती हैं कि इन रेलगाड़ियों से हमारे बेटे-बहू, नाती-पोते एक बार फिर से अपने घर लौट आयेंगे. कोसी भराई के गीतों में यह इंतजार होता है, छठ घाट पहुंचनेवाले दऊरे में यह इंतजार होता है. इस इंतजार के भीतर होती है एक उम्मीद, कि सूरज की तरह एक सांझ परिवार आंख से ओझल हुआ था, तो सूरज ही की तरह एक सुबह फिर परिवार इन आंखों के करीब होगा.

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