विस्थापन में छठ पर्व

प्रभात रंजन कथाकार दीवाली की अगली सुबह पास के बाजार की तरफ जा रहा था. सुनील जी मिल गये. पुराने सहपाठी रहे हैं. नदी किनारे खड़े होकर कुछ देख रहे थे. मैं दिल्ली के जिस इलाके में रहता हूं, वहां पास में ही पुरबिया विस्थापितों का एक बड़ा ठिकाना है न्यू अशोक नगर. वहां से […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 3, 2016 6:36 AM

प्रभात रंजन

कथाकार

दीवाली की अगली सुबह पास के बाजार की तरफ जा रहा था. सुनील जी मिल गये. पुराने सहपाठी रहे हैं. नदी किनारे खड़े होकर कुछ देख रहे थे. मैं दिल्ली के जिस इलाके में रहता हूं, वहां पास में ही पुरबिया विस्थापितों का एक बड़ा ठिकाना है न्यू अशोक नगर.

वहां से एक बड़ा नाला गुजरता है, जिसमें वैसे तो साल भर शहर का गंदा पानी गुजरता रहता है, लेकिन दीवाली के अगले कुछ दिनों में नाले के पानी की सफाई करके उसमें हिंडन नदी का पानी छोड़ दिया जाता है. यह सब छठ की तैयारी के लिए किया जाता है. सुनील जी और उनके साथियों के प्रयास से आज वह इलाका दिल्ली में छठ पर्व का एक प्रमुख घाट बन चुका है. जहां 50 हजार से अधिक स्त्री-पुरुष छठ का व्रत करते हैं. हर साल की तरह इस साल भी दीवाली के अगले दिन से ही सुनील जी छठ की तैयारी में लग गये हैं.

छठ के मौसम में बड़ी संख्या में बिहारी ट्रेनों में, हवाई जहाज से, बसों में किसी तरह लद-फंद कर अपने ‘देस’ जाते हैं. लेकिन, उससे भी बड़ी तादाद में बिहारी दिल्ली में, जिसके लिए कभी रघुवीर सहाय ने लिखा था ‘दिल्ली मेरा परदेस’, छठ मनाते हैं. उनके लिए लौट कर जाने के लिए कोई देस नहीं बचा होता है. रोजी-रोजगार की तलाश में दिल्ली आनेवाले, छोटे-छोटे पेशों को अपना कर अपने जीवन को एक मुकाम देने के बाद अपनी पहचान को एक मजबूत जमीन देने के लिए परदेसी नदी की घाट पर छठ के सूरज को अर्घ्य देते हैं.

मैं भी एक परदेसी ही हूं. छठ में घर नहीं जा पाता, लेकिन हर साल शाम को न सही, भोर में घाट पर जरूर जाता हूं. हर साल अपना गांव याद आ जाता है, छठ के न जाने कितने बरस याद आ जाते हैं.

जब मुंह अंधेरे नदी की घाट पर पहुंचने की उत्सुकता में कई बार हम रात भर सोते तक नहीं थे. दीवाली के बाद साल में अंतिम बार पटाखे चलाने का मौका हमें छठ घाट पर ही मिलता था. अपनी दादी के साथ, गांव की न जाने कितनी बुआओं, बहनों से हर साल छठ में मुलाकात होती थी. घाट पर आते-जाते हमारा हाल-समाचार होता था. उसके बाद तो फिर सब अपनी-अपनी दैनंदिन दुनिया में लौट जाते थे.

छठ का रोमांच यही होता था. एक साथ न इतने पटाखे छोड़ने के लिए कहीं और मिलते थे, न ही इतने नाते-रिश्तेदारों से ही एक साथ कभी मुलाकात हो पाती थी. हालांकि, अब हमारे गांव में पोखर-तालाब-नदी के घाटों पर कोई नहीं जाता. सबने अपने-अपने घर के सामने गड्ढे बना लिये हैं, जिसमें छठ के दिन पानी भर दिया जाता है.

यकीन मानिये, अपने गांव का वह छूटा हुआ घाट मुझे न्यू अशोक नगर के घाट पर दिखाई दे जाता है. उसी तरह नये-नये कपड़े पहन कर पटाखे छोड़ते बच्चे, पानी में हाथ जोड़े खड़े स्त्री-पुरुष, उसी तरह अपनी मैथिली बोली में बात करते लोग. कोई अपना नहीं होता, लेकिन सब अपना-अपना सा लगता है. किसी को नहीं जानता, लेकिन सब जाने-पहचाने से लगते हैं.

विस्थापितों का अपनापन देखना हो, तो दिल्ली में छठ घाटों पर जाइये. सुबह को न जाने कौन, कब, क्यों हाथ में प्रसाद दे जाता है. गले में जैसे कुछ फंसता हुआ लगता है और आँखों में बेवजह पानी सा आने लगता है. जिनको अपने देस में कोई पहचान नहीं मिली, विस्थापन में उनको छठ पर्व एक नयी पहचान देता है. ये छठ व्रती छठ के दिन अपने देस को याद करते हैं. जो परंपराएं छोड़ आये थे, उनको उन दिनों में जीते हैं. दिल्ली में छठ मनाना विस्थापन में अपने देस को याद करने का पर्व है. शारिक कैफी का शे’र याद आ रहा है- ‘सहरा में भी गांव का दरिया साथ रहा/ देखो ये मेरे पांव अभी तक गीले हैं.’

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