पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
हमारे संविधान निर्माताओं ने शासन के तीन बुनियादी स्तंभों- विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका- के बीच उपयुक्त संतुलन स्थापित करने के स्पष्टतः घोषित लक्ष्य के साथ उसका मसौदा तैयार करने की कोशिश की थी. विधायिका की सर्वोच्चता, एक अराजनीतिक नौकरशाही एवं लोक सेवा तथा एक स्वतंत्र न्यायपालिका हमारे गणतंत्र के प्रमुख चिह्न थीं. पर क्या अब यह सुरचित संवैधानिक व्यवस्था विनष्ट करने की कोई योजना चल रही है?
हाल में भारत के प्रधान न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए अनुशंसित नामों की स्वीकृति न देने के लिए भाजपा सरकार के असहयोगात्मक रवैये पर क्षोभ जताया. भारत विश्व का अकेला लोकतंत्र है, जहां न्यायाधीशों की नियुक्ति न्यायाधीशों द्वारा ही किये जाने की व्यवस्था रही है. केंद्र सरकार इसे बदलना चाहती थी और इस उद्देश्य से संसद द्वारा 2014 में बहुमत से राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम पारित किया गया था. मगर सुप्रीम कोर्ट ने उसे खारिज करते हुए पुरानी व्यवस्था ही कायम रखी. ऐसे में क्या सरकार द्वारा इस नियुक्ति प्रक्रिया में अवरोध डालना उचित है? संविधान द्वारा स्थापित न्यायपालिका की सर्वोच्चता को कार्यपालिका द्वारा चुनौती नहीं दी जानी चाहिए.
नौकरशाही के गैर-राजनीतिक चरित्र को भी कमजोर करने के सुविचारित प्रयास किये जा रहे हैं. ऐसी शिकायतें आ रही हैं कि प्रमुख पदों पर, खासकर मानव संसाधन तथा संस्कृति मंत्रालयों में, अधिकारियों की नियुक्ति के लिए उनकी राजनीतिक निष्ठा की पड़ताल की जा रही है. इससे नौकरशाही की नियुक्तियों में ‘भगवाकरण’ की सोची-समझी नीति की झलक आती है. प्रमुख पदों पर वांछित निष्ठा के अधिकारियों की नियुक्ति से उनके द्वारा आगे अधीनस्थ नियुक्तियों तथा पदोन्नतियों में भी उसी वैचारिक निष्ठा के लोगों को तरजीह दी जाती है और इस प्रकार यह प्रक्रिया ‘तरंग प्रभाव’ पैदा कर आगे बढ़ती ही रहती है.
जहां तक विधायिका की बात है, तो यह सही है कि भाजपा को लोकसभा में विशाल बहुमत हासिल है. तो क्या इसी वजह से उसके कुछ वरीय नेताओं को राज्यसभा की शक्तियों पर सवाल खड़े करने का अधिकार मिल जाता है? क्या केवल इसीलिए उनके द्वारा धन विधेयक (मनी बिल) की परिभाषा फिर से तय की जानी चाहिए, ताकि उसे पारित करने में राज्यसभा के अधिकार शिथिल किये जा सकें? राज्यसभा को संविधान के अंतर्गत विशिष्ट शक्तियां इसलिए दी गयी हैं कि वह लोकसभा के अविवेकी बहुमत पर नियंत्रण रख सके.
मीडिया को लोकतंत्र का अनौपचारिक ‘चौथा’ स्तंभ माना जाता है, पर वहां भी उसकी स्वतंत्रता पर चोट की कोशिशें दिखती हैं. मीडिया के एक बड़े हिस्से को बाध्य कर दिया गया है कि वह एक ठोस वस्तुनिष्ठता की बजाय बगैर किसी विरोध के वांछित नीतियों का अनुपालन किया करे. इनमें से कुछ दबाव तो सरकार द्वारा इस्तेमाल किये जा रहे हैं, वरना सूचना तथा प्रसारण मंत्रालय एनडीटीवी पर 9 नवंबर को एक दिवसीय पाबंदी क्यों लगाता? सरकार के इस कदम की जोरदार भर्त्सना करते हुए एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने इसे ‘आपातकाल की याद दिलानेवाला’ बताया. न्यूज ब्राॅडकास्टिंग एसोसिएशन ने भी इस पर गहरी चिंता प्रकट की. जैसी अपेक्षा थी, सरकार ने ऐसी टिप्पणियों को ‘राजनीति से प्रेरित’ करार दे दिया.
जीवंत लोकतंत्रों के एक अन्य आवश्यक घटक ‘सिविल सोसाइटी’ पर भी दबाव बढ़ाये जा रहे हैं. विदेशी अभिदाय (विनियमन) अधिनियम (एफसीआरए) की तकनीकी बारीकियों का इस्तेमाल कर केंद्रीय गृह मंत्रालय ने 11,319 गैरसरकारी संगठनों (एनजीओ) के निबंधन रद्द कर 1,736 अन्य के निबंधन इस आधार पर स्थगित कर दिये हैं कि उन्होंने उचित कागजात नहीं दिये. देश के कुल 33,138 एनजीओ में से करीब एक तिहाई को विदेशी निधियां लेने से वंचित कर दिया गया है. वहीं 25 एनजीओ के निबंधनों का नवीकरण करने से इस आधार पर मना कर दिया गया कि उनकी ‘गतिविधियां राष्ट्रहित की पोषक नहीं’ हैं.
ये सारे कदम इस निष्कर्ष तक ले जाते हैं कि यदि आप भाजपा के समर्थन में हैं, तो देशभक्त हैं और यदि उसके विरोधी हैं, तो राष्ट्रद्रोही हैं. मामूली गतिविधियों के चलते विरोधियों पर राष्ट्रद्रोह के आरोप मढ़े जा रहे हैं. किसी भी मतभिन्नता तथा यहां तक कि रचनात्मक आलोचना को भी इस आधार पर खारिज किया जा रहा है कि भारत के निष्ठावान नागरिक के रूप में आपकी विश्वसनीयता संदिग्ध है.
केंद्र में भाजपा शासन द्वारा अपने कार्यकाल के मध्य तक पहुंचते-पहुंचते एक बुनियादी सवाल खड़ा हो चुका है कि क्या रोजाना तथा संस्थागत आधार पर हमारे गणतंत्र के मौलिक मूल्यों के क्षरण की कोशिशें की जा रही हैं? यह समस्त भारतीय नागरिकों के लिए चेतावनी के चिह्न पहचानने की घड़ी है.
(अनुवाद : विजय नंदन)