अनुज कुमार सिन्हा
15 नवंबर यानी बिरसा मुंडा का जन्मदिन आैर झारखंड राज्य स्थापना दिवस, दाेनाें. एक एेतिहासिक आैर पवित्र दिन. उलिहातू उनकी पवित्र जन्मभूमि. अब वक्त आ गया है, बिरसा से जुड़ी यादाें काे जाेड़ने का. अधिक से अधिक लाेगाें काे बिरसा मुंडा से जुड़े यादगार स्थलाें का दर्शन कराने का. याद कीजिए-इसी वर्ष 15 अगस्त काे लाल किले से प्रधानमंत्री नरेंद्र माेदी ने स्वतंत्रता संग्राम में बिरसा मुंडा के संघर्ष का जिक्र किया था-पहली बार लाल किले से किसी प्रधानमंत्री ने बिरसा मुंडा का नाम लिया था. लाेगाें में बिरसा काे जानने-समझने की ललक बढ़ी है. लाेग, खास ताैर पर युवा (जाे बिरसा मुंडा के संघर्ष काे नहीं जानते हैं) बिरसा मुंडा के संघर्ष जीवन काे समझना चाहते हैं. यह एक अवसर है, लेकिन झारखंड बनने के 16 साल बीत जाने के बावजूद बिरसा मुंडा काे समझने, उनसे जुड़े ऐतिहासिक स्थल काे जाेड़ने पर किसी भी सरकार ने काम नहीं किया. हां, बिरसा पूजनीय हैं आैर बगैर उनकी शरण में गये किसी दल का कल्याण नहीं हाे सकता, इसलिए कुछ छाेटे-छाेटे प्रयास समय-समय पर विभिन्न सरकाराें ने किये हैं.
झारखंड के अन्य वीर शहीदाें (यहां भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की बात हाे रही है) सिदाे-कान्हाे, बाबा तिलका माझी, बुधु भगत, तेलंगा खड़िया, शेख भिखारी, उमरांव सिंह टिकैत, पांडेय गणपत राय, ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, नीलांबर-पीतांबर, रघुनाथ महताे से जुड़े ऐतिहासिक स्थलाें की बात भी बहुत कम हाेती है. हां, उलिहातू आैर भाेगनाडीह के लिए जरूर याेजनाएं बनी हैं, काम हाे रहे हैं, लेकिन इसे अब पर्यटन के ताैर पर भी देखना हाेगा. ये बड़े अवसर हैं. अगर बिरसा मुंडा की बात करें, ताे उलिहातू (जहां जन्म हुआ), सईल रकब पहाड़ (डाेंबारी हिल, जहां मुंडाआें ने अंतिम संघर्ष किया), रांची जेल (जहां बिरसा ने अंतिम सांस ली थी), रांची के काेकर स्थित समाधि स्थल (जहां बिरसा मुंडा का दाह संस्कार किया गया था), ये चार स्थल हैं, जाे ऐतिहासिक धराेहर बन सकते हैं, जिनके बारे में लाेग जानना चाहते हैं. अगर इन स्थलाें में कुछ आैर जाेड़ना हाे ताे वह हाेगा पाेड़ाहाट के जंगल में सेंतरा के पास का वह स्थल, जहां से गद्दाराें ने सिर्फ पांच साै रुपये के लिए बिरसा मुंडा काे गिरफ्तार करवा दिया था. यह स्थल अभी भी चिह्नित नहीं है, लेकिन पहले के चाराें स्थल प्रमाणित हैं.
ताे क्या किया जाये?
उलिहातू काे विकसित किया ही जा रहा है. वहां बिरसा मुंडा का पैतृक आवास है. उनके वंशज रहते हैं. उनकी मूर्ति लगी है, लेकिन 15 नवंबर आैर नौ जून (पुण्यतिथि) काे छाेड़ कर वहां जाता काैन है? बाहर से आये लाेगाें के लिए वहां क्या है सुविधा? कुछ भी नहीं. घने जंगलाें के बीच से हाेकर जाना पड़ता है. यही हाल है डाेंबारी हिल का. वहां भी पहाड़ पर उलगुलान की स्मृति में एक मीनार है, डॉ रामदयाल मुंडा ने लगवाया है. साल में एक बार रात भर का बड़ा सांस्कृतिक कार्यक्रम हाेता है. पर इन कार्यक्रमाें में आसपास के ग्रामीण या बिरसा के प्रति श्रद्धा रखनेवाले ही जाते हैं. रांची जेल (पुराना) में ही बिरसा मुंडा ने नौ जून 1900 काे अंतिम सांस ली थी. इस बार वहां बिरसा मुंडा की प्रतिमा लगी है. काेकर में समाधि स्थल बेहतर बना है. अब वक्त की मांग है, इन चाराें स्थलाें के लिए पर्यटन विभाग ठाेस याेजना बनाये. बिरसा की स्मृति से जुड़े तमाम स्थलाें का एक पर्यटन सर्किट बनाये. देश के अन्य राज्याें में इसका प्रचार किया जा सकता है.
वहां से बड़े पैमाने पर पर्यटकाें काे आकर्षित किया जा सकता है. दुनिया में कई ऐसे देश हैं, जहां पुरखाें की याद में ऐसे ही पर्यटन सर्किट विकसित किये गये हैं. झारखंड ताे प्राकृतिक ताैर पर सुंदर राज्य है. इसकी हरियाली का जवाब नहीं है. प्रकृति ने इसे सब कुछ दिया है. इस सुंदरता के बल पर भी पर्यटकाें काे आकर्षित किया जा सकता है. अगर ढंग से प्रयास हाे आैर ऐसी व्यवस्था हाे कि पर्यटक रांची आये, विभाग अपनी बसाें से, पूरी सुरक्षा के बीच ऐसे पर्यटकाें काे पहले उलिहातू ले जाये, वहां से डाेंबारी हिल ले जाया जाये, गांव में रात में रहने की व्यवस्था हाे (अगर सुरक्षा का खतरा न हाे ताे आज महानगराें में रहनेवाले लाेग गांवाें में झाेपड़ियाें में रात में रहना चाहते हैं, ग्रामीणाें के साथ दाेना-पत्तल में स्थानीय भाेजना पसंद करते हैं), वहीं पर खुले में (आेपेन थियेटर की तरह) बिरसा की संघर्ष गाथा काे फिल्म के माध्यम से बड़े परदे पर दिखाया जाये. इसमें स्थानीय लाेगाें की बड़ी भागीदारी हाे सकती है, उनके लिए राेजगार के बड़े अवसर मिल सकते हैं. वे अपने गावाें में बने उत्पाद भी उन्हें बेच सकते हैं. यह जिम्मेवारी उन्हें ही निभानी हाेगी. इसके बाद रांची में बिरसा जेल आैर समाधि स्थल का दर्शन करा कर पर्यटकाें काे विदा किया जा सकता है. ऐसे प्रयास अन्य जगहाें के लिए भी हाे सकते हैं. हां, सुरक्षा का ख्याल सबसे आवश्यक है. जब तक पर्यटकाें में सुरक्षा के प्रति विश्वास नहीं जागेगा, वे हिचकेंगे.
इसके लिए कला-संस्कृति आैर पर्यटन विभाग काे जुनून के साथ काम करना हाेगा. कुछ आैर भी प्रयास हाे सकते हैं. रांची में बड़े शहीद पार्क की कमी खलती है. अब ताे जगह की भी कमी नहीं है. क्याें नहीं, रांची में 30-40 फीट ऊंची बिरसा मुंडा की मूर्ति रांची जेल कैंपस ( या किसी आैर बड़े शहीद पार्क बन जाने पर) में लग सकती है. उसी कैंपस में अन्य शहीदाें (स्वतंत्रता संग्राम) की प्रतिमा लग सकती है. उसी कैंपस में बिरसा मुंडा, अन्य शहीदाें आैर यहां की भाषा-संस्कृति से जुड़े दस्तावेज-धराेहर काे भी रखा जा सकता है, ताकि दुनिया के किसी काेने से झारखंड पर रिसर्च करनेवालाें काे भटकना नहीं पड़े. झारखंड में ऐसी संस्था नहीं है आैर राज्य के भविष्य के लिए ऐसी संस्थाअाें काे बनाना दूरगामी असर पड़ेगा. अब सरकार पर (खास कर पर्यटन विभाग पर) कि वह इन अवसराें काे कैसे आगे बढ़ाती है. बिरसा मुंडा की यादाें काे जाेड़ कर अगर हजार लाेगाें काे (इनमें से अधिकांश गांवाें के ही हाेंगे, जाे आज बेराेजगार पड़े हुए हैं) राेजगार मिलने लगे, ताे इससे बेहतर आैर क्या हाे सकता है.