सोलह बरस का झारखंड

जन्मदिन अपनी अर्थवत्ता को तलाशने का दिन भी होता है. यह अवसर प्रतिज्ञाओं को परखने, सफलताओं-असफलताओं का आकलन करने, हासिल उपलब्धियों के आधार पर भविष्य की नयी उम्मीदें बांधने का होता है. झारखंड आज अपने जन्म के सत्रहवें साल में प्रवेश कर रहा है, तो सामुदायिक जीवन की एक राजकीय इकाई होने के नाते ये […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 15, 2016 6:15 AM
जन्मदिन अपनी अर्थवत्ता को तलाशने का दिन भी होता है. यह अवसर प्रतिज्ञाओं को परखने, सफलताओं-असफलताओं का आकलन करने, हासिल उपलब्धियों के आधार पर भविष्य की नयी उम्मीदें बांधने का होता है.
झारखंड आज अपने जन्म के सत्रहवें साल में प्रवेश कर रहा है, तो सामुदायिक जीवन की एक राजकीय इकाई होने के नाते ये बातें उस पर भी लागू होती हैं. एक नये राज्य के रूप में झारखंड की राजसत्ता ने जनता से किये गये वादों को किस हद तक निभाया है, इसकी परख की कसौटी क्या हो सकती है? झारखंड बनाने का आंदोलन एक अस्मितापरक आंदोलन था, तो भी कोई अस्मिता सर्वतोभावेन एकाश्मक नहीं होती.
झारखंड भी अपनी सामाजिक संरचना में बहुधर्मी और बहुवर्णी है. विविधताओं से भरा समाज विभिन्न हितों की टकराहट का समाज होता है. ऐसे में झारखंड की राजसत्ता के वादों की सफलता-असफलता के आकलन की कोई सर्वमान्य कसौटी बनाना मुश्किल होगा. बहरहाल, झारखंड के मामले में अच्छी बात है कि यह कसौटी बनी हुई है.
अप्रैल, 2011 में तत्कालीन मुख्यमंत्री द्वारा बनायी गयी एक समिति ने राज्य के विकास पर एक रिपोर्ट सौंपी थी. बिबेक देबरॉय, लवीश भंडारी और विशाल सिंह द्वारा तैयार रिपोर्ट के शुरू में कहा गया है कि यह विपुल संभावनाओं के बीच अपूर्ण आकांक्षाओं का राज्य है.
समिति ने रेखांकित किया कि राज्य की संभावनाओं को साकार करने के लिए एक व्यापक सुधार-प्रक्रिया की दरकार है, जिसका एजेंडा लोगों की जरूरत को सबसे आगे रखते हुए समावेशी विकास की राह पर चलने का हो. समिति ने राज्य में एक उत्पादक माहौल की रचना पर जोर दिया, जिसमें लोगों को रोजगार के अवसर उपलब्ध हों, सुरक्षा और संरक्षा की गारंटी हो, रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने लायक सुचारु ढांचा हो और प्रशासनिक तंत्र इतना मजबूत हो कि लोगों को जीवन और जीविका के लिए बेहतर माहौल दे सके. इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए रिपोर्ट में संगठित और असंगठित क्षेत्र में बड़े, मंझोले, छोटे और सूक्ष्म स्तर के उद्यमों का ढांचा खड़ा करने का सुझाव दिया गया था.
शासन-प्रशासन की जवाबदेही के लिए अंदरूनी और बाहरी प्राधिकरणों द्वारा निरंतर निगरानी की व्यवस्था करने की सलाह भी थी. यदि इस रिपोर्ट को झारखंड की यात्रा की परख के लिए एक कसौटी मानें, तो तसवीर के कुछ हिस्से बहुत चमकदार जान पड़ते हैं और कुछ पहले की तरह स्याह.
शुरुआती चौदह सालों की राजनीतिक अस्थिरता का कोहरा अब छंट चुका है. सूबे में एक स्थिर सरकार है. इस सरकार ने झारखंड की उपलब्धियों के खाते में जो तथ्य गिनाये हैं, वे पहली नजर में उत्साह जगानेवाले हैं.
राज्य के आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक, वित्त वर्ष 2015-16 कई अर्थों में झारखंड के लिए उपलब्धियों का संकेतक रहा है. अनुमानों के मुताबिक, राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में 8.83 फीसदी और निवल (शुद्ध) घरेलू उत्पाद में 8.9 फीसदी की दर से बढ़ोतरी की संभावना है. व्यवसाय करने में सुगमता के लिहाज से यह राज्य गुजरात और आंध्र प्रदेश के बाद देश में तीसरे स्थान पर माना गया है. सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार, लगातार तीसरे साल राज्य की वृद्धि दर ने आठ फीसदी का आंकड़ा पार किया है. इसका असर राज्य में प्रति व्यक्ति आमदनी की बढ़ोतरी के रूप मे देखा जा सकता है.
राज्य में प्रति व्यक्ति आय 2004-05 के 18,510 रुपये (स्थिर मूल्यों के आधार पर) से बढ़ कर वित्त वर्ष 2015-16 में 33,260 रुपये होने का अनुमान है. बीते 11 वर्षों के हिसाब से यह सालाना 5.47 फीसदी की बढ़त है.
लेकिन, इस वृद्धि का मूल्यांकन राज्य में निहित संभावनाओं के परिप्रेक्ष्य में करने पर एक अलग तसवीर उभरती है. झारखंड खनिज-बहुल राज्य है. देश का 40 फीसद खनिज इसी राज्य से आता है, तो भी आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट के मुताबिक विनिर्माण का क्षेत्र सरकार की भरपूर कोशिशों के बावजूद राज्य में अपेक्षित गति से नहीं बढ़ रहा है. पिछले दो सालों से राज्य में औद्योगिक उत्पादन में कमी आयी है. राज्य के सकल घरेलू उत्पाद की बढ़त में मुख्य योगदान सेवाक्षेत्र का है, जो बीते 10 वर्षों में 33 फीसदी से बढ़ कर 49 फीसदी हो गया है और यह वृद्धि भी विशेष रूप से बैंकिंग, बीमा तथा संचार जैसे क्षेत्रों में केंद्रित है.
कृषि और इससे जुड़े क्षेत्रों की बढ़त का उल्लेख आर्थिक सर्वेक्षण में है, पर यह भी दर्ज है कि आधुनिक खेती के नाम पर बस कहीं-कहीं ट्रैक्टर दिख जाते हैं, लेकिन उर्वरकों का उपयोग अग्रणी राज्यों की तुलना में बहुत कम है.
यह खेती के पिछड़े होने का संकेतक है. आर्थिक विकास की ऐसी चुनौतियों की छाया सामाजिक विकास के क्षेत्र में दिखती है. चाहे जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों की संख्या हो या फिर शिक्षा, चिकित्सा, आवास का मामला, झारखंड को अब भी सामाजिक विकास के लिहाज से अग्रणी माने जानेवाले राज्यों की तुलना में लंबी दूरी तय करनी है.
आदिवासी अस्मिता को उसका जायज हक देने की नैतिक आभा से संपन्न आंदोलन के जरिये बने राज्य में आदिवासियों के अधिकारों को सुरक्षित करनेवाले पेसा कानून पर अमल खास कारगर नहीं रहा है. बरसों से रुके पंचायत के चुनाव संपन्न हो गये हैं, पर सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिए बहुत कुछ किया जाना अभी शेष है.

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