अनंत कुमार
एसोसिएट प्रोफेसर, जेवियर इन्स्टीट्यूट आॅफ सोशल सर्विस
राजनेताओं ने यह सोचा था कि शासन में स्थानीय आदिवासियों की सहभागिता झारखंड का विकास सुनिश्चित करेगी. दुर्भाग्यवश, खनिजों, वनों तथा प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न झारखंड भ्रष्टाचार, विकास की कमी, नक्सलवाद, राजनीतिक अस्थिरता, कुशासन, आदिवासियों के शोषण के साथ कुछ अन्य सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं का शिकार हो गया.
दूसरी ओर, राजनीतिक नेतृत्व, सिविल सोसाइटी तथा अकादमिक क्षेत्र राज्य के विकास की एक प्रभावी योजना तैयार नहीं कर सका. इस स्थिति के अंतर्निहित वजहों की पड़ताल कर झारखंड की समृद्धि के एक रोडमैप की अनुशंसा अहम होगी.
हालांकि, एक पृथक राज्य की मांग जनता के सशक्तीकरण तथा विकास के सपने के साथ उठायी गयी, पर इसका कोई सुचिंतित एवं सर्वसम्मत रोडमैप विकसित नहीं किया जा सका.
जिन लोगों के हाथों में सत्ता की बागडोर गयी, उनकी अपनी अलग ही प्राथमिकताएं तथा कार्यसूची थी, जिसका झारखंड के वास्तविक विकासात्मक विजन से कोई तालमेल नहीं था. इसलिए सबसे पहले एक विजन विकसित किया जाना चाहिए. हालांकि, स्वाभाविक रूप से यह राज्य की जिम्मेवारी होगी, मगर सिविल सोसाइटी तथा अकादमिक क्षेत्र को इसमें अपनी शक्तिभर योगदान करते हुए उत्प्रेरक की भूमिका अदा करनी चाहिए.
सरकार तथा गैरसरकारी संगठन (एनजीओ) जनता तथा खासकर हाशिये पर स्थित वर्गों के लिए कई कार्यक्रम संचालित कर रहे हैं, पर बड़ा सवाल यह है कि प्राथमिक तथा परिधि पर स्थित विकास बिंदु क्या हों?
वर्तमान परिस्थिति में आबादी का एक वर्ग भूख, गरीबी तथा आजीविका के विकल्पों की कमी से मौत का शिकार हो रहा है. जहां जीवन रक्षा ही खतरे में हो, वहां परिधीय मुद्दे दूरगामी तथा टिकाऊ प्रभाव पैदा नहीं कर सकते. विकास का हमारा एजेंडा तथा हमारे द्वारा किये जानेवाले हस्तक्षेप ऊपर से नीचे (टॉप डाउन) पहुंचने की बजाय जनता की जरूरतों पर आधारित होने चाहिए. भूख तथा आजीविका की समस्याओं के समाधान के लिए केवल खाद्य सुरक्षा तथा आजीविका संवर्धन की रणनीति ही कारगर हो सकती है, जिसके लिए संबद्ध क्षेत्रों में निवेश की आवश्यकता है.
राज्य में लागू किये जा रहे वर्तमान कार्यक्रम तथा परियोजनाएं ऊपर से (केंद्र प्रायोजित योजनाएं) निर्देशित होती हैं, जिनकी अपनी सीमाएं हैं. उनके फायदे, खासकर आदिवासी आबादी एवं हाशिये पर स्थित लोगों तक नहीं पहुंच पा रहे.
ज्यादातर कार्यक्रम लक्ष्य-उन्मुखी हैं, जो उन्हें क्रियान्वित करनेवालों तथा नौकरशाही को बाध्य करते हैं कि वे उनके समूहीकरण, लोगों की सहभागिता तथा प्रक्रिया संचालित तौर-तरीके पर गौर किये बगैर केवल लक्ष्यों की प्राप्ति पर केंद्रित रहें. यह समझना जरूरी है कि विकास की प्रक्रिया में लक्ष्य-संचालित रीति-नीति टिकाऊ नहीं होती, जिसे परिवार नियोजन जैसे कार्यक्रमों के संदर्भ में विफल होते हम देख चुके हैं. इसी रीति ने हमें विकास के प्रक्रिया-उन्मुखी मार्ग से विलग कर दिया है.
वक्त की मांग यह है कि सभी कार्यक्रम, परियोजनाएं तथा विकासात्मक हस्तक्षेप जनता की जरूरतों, भौगोलिक स्थितियों एवं संदर्भों के आधार पर विकसित तथा निर्देशित तो हों ही, साथ ही उनका रूपांकन नीचे से ऊपर (बॉटम-अप) की रीति से हो, जो अभी नदारद है.
झारखंड में आंदोलनों का पुराना इतिहास रहा है, पर दुर्भाग्य है कि वर्तमान में सिविल सोसाइटी तथा एनजीओ जनता की जरूरतों का आकलन करने में विफल रहते हुए जन-एजेंडा की जगह नवउदारवादी विचारों, बाजार की शक्तियों एवं दाताओं की प्राथमिकताओं से निर्देशित हैं. राज्य उनकी मंशा समझ सकने में विफल रहते हुए विकास के उनके मॉडल के प्रति आकृष्ट हो गया, जो स्वयं उनके तथा बाजार की शक्तियों के पक्ष में था.
वास्तविक विकास के लिए समुदायों तथा जनता और उनकी जरूरतों को समझना अनिवार्य है.
जनता की जड़ें, पहचान, उनकी संस्कृति, परंपराएं और मूल्य समझे बगैर कोई राज्य प्रभावी विकास नीति तथा कार्यक्रम तय नहीं कर सकता. यही वह आधार है, जो समाजों, उनके कार्यों, उनकी आजीविका और अंततः उनका अस्तित्व एवं टिकाऊ विकास को सुनिश्चित करता है. वह समय ज्यादा दूर नहीं, जब वे अपनी संस्कृति, मूल्य, परंपराएं तथा स्थानीय जानकारियां भुला देंगे. हम इससे अनजान हैं कि हम कौन हैं, हम क्या हासिल करना चाहते हैं और हमारे विकास का मॉडल क्या है.
मैं आशा करता हूं कि झारखंड की वर्तमान सरकार इन बारीकियों को समझेगी और एक समृद्ध झारखंड का जनस्वप्न साकार कर सकेगी. ऐसा लगता है कि राज्य का वर्तमान नेतृत्व विकास से सरोकार रखनेवाला तथा सक्रिय-सचेष्ट है. झारखंड के विकास हेतु यह जिस रास्ते पर आगे बढ़ रहा है- खासकर भ्रष्टाचार के विरुद्ध सरकार द्वारा छेड़े गये वर्तमान जेहाद के संदर्भ में- उस पर नजर रखना दिलचस्प होगा.
(अनुवाद: विजय नंदन)