कुछ वाक्य बड़े चमकदार होते हैं. मुंह से निकलते ही ऐसे वाक्य सबकी जबान पर चढ़ जाते हैं. इस हफ्ते की शुरुआत में उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में रेल पुल के शिलान्यास के वक्त प्रधानमंत्री के मुंह से ऐसा ही चमकदार वाक्य निकला कि ‘गरीब चैन की नींद सो रहा है, कालेधन वाले नींद की गोलियां खरीद रहे हैं.’
प्रधानमंत्री शायद यूपी के चुनावों को देखते हुए पुरबिया अंचल के लोगों को जताना चाह रहे थे कि हजार और पांच सौ के नोटों के चलन को बंद करने के साथ सरकार कालेधन पर रोक लगाने के अपने वादे के करीब पहुंच चुकी है. किसी शासन में गरीब चैन की नींद सोये और भ्रष्ट कमाई के बूते अमीर बने लोग नींद की गोलियां खरीदने को मजबूर हो जायें, तो माना जायेगा कि राजकाज के उनके फैसलों में आर्थिक न्याय का सवाल प्रधान रहा है. लेकिन क्या सच वही है, जिसकी तरफ प्रधानमंत्री गाजीपुर की सभा में अपने चमकते हुए वाक्य से इशारा कर रहे थे?
अगर यह नियम स्थिर करें कि न्याय-भावना बुराई को दंड और अच्छाई को पुरस्कार देने का नाम है और पल भर को मान लें कि नोटबंदी के फैसले से काली कमाई करनेवालों और उनके कालेधन पर चोट पहुंची है, तो आंखों के आगे की सच्चाई क्या बताती प्रतीत होती है? यही कि बुराई को दंडित करने की मंशा से लिया गया एक फैसला फिलहाल अच्छाई के गले की फांस बन रहा है. गरीब चैन की नींद नहीं सो रहे हैं, बल्कि वे कुछ नकदी जुटाने की कोशिश में आधी रात के बाद से ही बैंकों के आगे कतार बांध कर खड़े हो रहे हैं. उनकी रोज की दिहाड़ी मारी जा रही है. नकदी की किल्लत ने खरीदारी की क्षमता पर असर डाला है.
रिजर्व बैंक के आंकड़े कहते हैं कि इस साल मार्च महीने के आखिर में लगभग साढ़े 16 लाख करोड़ रुपये के नोट प्रचलन में थे और इस रकम का 86.4 फीसद हिस्सा हजार-पांच सौ के नोटों की शक्ल में था. 500 रुपये की शक्ल में मौजूद 7.85 लाख करोड़ और हजार रुपये की शक्ल में मौजूद 6.33 लाख करोड़ रुपये की कीमत सरकार के औचक फैसले के बाद कौड़ी बराबर नहीं रह गयी. असली चुनौती जल्दी से इस रकम को बाजार में पहुंचाने की है. सरकार समझा रही है कि देश में नोटों की कमी नहीं है, लेकिन बैंकिंग सुविधा का हाल इस समझाइश पर पानी फेर रहा है. रिजर्व बैंक की वित्तीय समावेशन पर केंद्रित द कमिटी ऑन मिडियम टर्म पाथ ऑन फाइनेंशियल इन्क्लूजन की हालिया (2015) रिपोर्ट के मुताबिक, ब्रिक्स देशों में अकेला भारत ही है, जहां साल 2014 में तकरीबन 50 फीसदी आबादी के पास बैंक या पोस्ट ऑफिस जैसे वित्तीय संस्थान में कोई खाता नहीं है. इस आबादी के हाथ में नकदी कैसे पहुंचेगी? जिनके जमाखाते हैं, उनके बारे में माना जा सकता है कि बैंकों और एटीएम से जरूरत भर की नकदी जुटा लेंगे. इस मामले में भी स्थिति निराशाजनक है. वित्तीय समावेशन पर केंद्रित रिपोर्ट के ही मुताबिक, 2015 के जून माह तक देश में प्रति 1 लाख आबादी पर व्यावसायिक बैंकों की संख्या 10 से भी कम (9.7) थी. इसमें भी गांव और शहर का अंतर साफ देखा जा सकता है. ग्रामीण और अर्धशहरी क्षेत्रों में प्रति लाख आबादी पर व्यावसायिक बैंक की संख्या 7.8 है, जबकि शहरी और महानगरीय इलाकों में एक लाख की आबादी पर लगभग 19 बैंक हैं. क्षेत्रवार बैंकों की संख्या में 2006 से 2015 के बीच डेढ़ गुना वृद्धि हुई है. लेकिन, पूर्वोत्तर के राज्य तथा बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश में आबादी की तुलना में बैंकों की शाखाओं की संख्या में वृद्धि अपेक्षाकृत कम रही है. मार्च 2015 तक राज्यवार बेसिक सेविंग बैंक डिपॉजिट अकाउंट की संख्या के भी संकेत हैं कि पूर्वोत्तर तथा पूर्वी राज्य इस मामले में शेष राज्यों से पीछे हैं. सो गरीब राज्यों की आम जनता के हाथ नोटबंदी से अमीर राज्यों की तुलना में कहीं ज्यादा बंधे हैं.
वित्तमंत्री भले कहें कि स्थिति संभलने में दो से तीन हफ्ते लगेंगे, लेकिन ‘कैश नहीं है’ और ‘मशीन खराब है’ की तख्ती साट कर मुंह बिरानेवाले एटीएम अगर चौबीसों घंटे काम करने लगें, तो भी स्थिति महीने भर से ज्यादा बेसंभाल ही रहेगी, क्योंकि देश में प्रति लाख आबादी पर केवल 18 एटीएम मौजूद हैं. क्रेडिट या डेबिट कार्ड या फिर इलेक्ट्राॅनिक वॉलेट का इस्तेमाल करनेवाले तनिक सुविधाजनक स्थिति में हैं, लेकिन रिजर्व बैंक के ही आंकड़े बताते हैं कि देश में 15 साल और इससे ज्यादा उम्र के केवल 10 फीसदी लोग ही डेबिट या क्रेडिट कार्ड के जरिये भुगतान करते हैं. क्या इन 10 फीसदी लोगों के बूते कहें कि नोटबंदी के बाद गरीब चैन की नींद सो रहे हैं और अमीर नींद की गोलियां खरीद रहे हैं?
चमकदार वाक्यों से हमेशा सचेत रहना चाहिए. ये वाक्य अपनी चमक से चकाचौंध करते हैं, मगर सच्चाई को ही ढक सकते हैं! गाजीपुर में प्रधानमंत्री के मुंह से निकला वाक्य ऐसा ही था- एटीएम के आगे कतार में खड़े देश की बुद्धि को सुलानेवाला!
चंदन श्रीवास्तव
एसोसिएट फेलो, कॉमनकॉज
chandanjnu1@gmail.com