प्रभात रंजन
कथाकार
उनकी चिंता कहीं नहीं दिखाई दे रही है. पांच सौ और हजार के नोटों के चलन के बंद होने के बाद बैंकों और एटीएम के बाहर लगी लंबी-लंबी कतारों में बड़ी तादाद उनकी भी है. विद्यार्थी अपना घर-बार छोड़ कर बेहतर भविष्य के लिए दिल्ली जैसे शहरों में पढ़ाई के लिए रहते हैं.
महानगरों में विस्थापित आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा विद्यार्थियों का है, इंजीनियरिंग की तैयारी करनेवाले, दिल्ली के विश्वविद्यालयों में पढ़नेवाले, कोचिंग करनेवाले. एक दिन पहले एक टीवी चैनल पर बैंक की लाइन में लगा एक विद्यार्थी कह रहा था कि उसके पास ट्यूशन फीस देने के लिए पैसे नहीं हैं, जिसके लिए वह तीन दिनों से अलग-अलग जगहों पर लाइन में लग रहा है.
इन विद्यार्थियों में बड़ी संख्या बिहार-झारखंड के विद्यार्थियों की है, उत्तर-पूर्व के विद्यार्थियों की है. सब लाइन में लगे हुए हैं. यह ठीक है कि जो लड़के-लड़कियां हॉस्टलों में रह रहे हैं, उनको पैसों की उतनी जरूरत नहीं है, क्योंकि वहां रोज रहने-खाने के पैसे देने नहीं पड़ते. लेकिन, दिल्ली में बमुश्किल 10 प्रतिशत विद्यार्थी ही ऐसे हैं, जो हॉस्टल की सुरक्षा में रह रहे हैं.
अकेले दिल्ली विश्वविद्यालय में 10 हजार से अधिक विद्यार्थी बाहर से पढ़ने आते हैं. अगर पत्राचार से पढ़नेवालों की संख्या को भी इसमें जोड़ दिया जाये, तो यह संख्या बहुत बड़ी हो जाती है. इसके अलावा कंपटीशन की तैयारी करनेवाले भी हजारों छात्र-छात्राएं हैं. बैंकों में जमा पैसे या पास में जमा पैसों के अलावा उनके पास और किसी तरह की सुरक्षा नहीं होती. इधर खबरें आ रही हैं कि दिल्ली में काम करनेवाले बहुत सारे विस्थापित अपने गांवों की तरफ लौट रहे हैं, क्योंकि रोज-रोज की दिहाड़ी के काम ठप पड़ते जा रहे हैं. लेकिन, विद्यार्थी कैसे जायें? कहां जायें?
विद्यार्थियों के ऊपर यह समस्या ऐसे समय में आयी है, जब दिल्ली विश्वविद्यालय में 10 दिनों बाद परीक्षाएं शुरू होनेवाली हैं. ऐसे समय में उनके खर्चे बढ़ जाते हैं. किताबें खरीदने से लेकर नोट्स फोटोकॉपी करवाने तक का काम रोजाना कैश में ही होता है. लेकिन, नकदी दुर्लभ होती जा रही है. उनको न तो कोई उधार देता है, न ही कहीं उनका खाता चलता है. सबका जी हलकान है.
मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में पढ़ाता हूं. विद्यार्थियों से मेरी बात होती रहती है. उनको लगता है कि भ्रष्टाचार-मुक्त भारत की दिशा में यह एक ठोस कदम है. लेकिन, वे यह भी पूछते हैं कि सर आपका पैसा निकला. दुख की बात है कि कई कॉलेजों में प्राध्यापकों और कर्मचारियों के लिए बैंक से बात करके विशेष सुविधाओं का प्रबंध किया गया है. लेकिन, कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों की वही हालत है, जो देश में आम आदमी की हालत है.उनके पास लंबी-लंबी कतारों के अलावा सिर्फ उम्मीद का ही साथ है.
मेरा भांजा कोटा में आइआइटी की कोचिंग कर रहा है. बिहार-झारखंड के न जाने कितने कम उम्र के बच्चे कोटा में कोचिंग कर रहे हैं. कमरे का किराया से लेकर मेस के बिल तक का यही मौसम होता है. सरकार ने 9 तारीख की रात में नोटबंदी की घोषणा की. तब तक बच्चों के मां-बाप उनको पैसे भेज चुके थे. सबसे बड़ी बात यह है कि उन बच्चों के बैंक अकाउंट भी नहीं होते हैं. पास में मां-बाप का भेजा हुआ कैश पैसा तो है, लेकिन उसको जमा करने के लिए बैंक अकाउंट नहीं है. आइआइटी की तैयारी में मन लगाएं या पैसों के जुगाड़ में.
अफसोस है कि विद्यार्थियों की कोई नहीं सुन रहा है. सुनना तो दूर, कोई उनकी मुश्किलों की बात भी नहीं कर रहा है.