वाहियान की भारत-यात्रा

डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार मैं चौथी शताब्दी में भारत गये चीनी यात्री फाहियान का वंशज वाहियान हूं. मेरे पुरखे फाहियान के माता-पिता की संतानें जीवित नहीं रहती थीं, अत: उनके पिता ने उन्हें जन्मते ही भिक्षु-संघ को अर्पित कर दिया था. जाहिर है, धार्मिक आस्थाओं के मामले में चीन भारत से जरा भी पीछे […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 18, 2016 6:46 AM

डॉ सुरेश कांत

वरिष्ठ व्यंग्यकार

मैं चौथी शताब्दी में भारत गये चीनी यात्री फाहियान का वंशज वाहियान हूं. मेरे पुरखे फाहियान के माता-पिता की संतानें जीवित नहीं रहती थीं, अत: उनके पिता ने उन्हें जन्मते ही भिक्षु-संघ को अर्पित कर दिया था. जाहिर है, धार्मिक आस्थाओं के मामले में चीन भारत से जरा भी पीछे नहीं था. वहां उनका नाम कुंग से बदल कर फाहियान कर दिया गया, जिसका अर्थ चीनी भाषा में ‘धर्मरक्षक’ होता है.

‘फा’ माने ‘धर्म’ और ‘हियान’ माने रक्षक. इससे पता चलता है कि चीन में भी धर्म काफी खतरे में रहता था, जिसके कारण उसे रक्षकों की जरूरत रहती थी.

फाहियान की तरह मेरा मूल नाम भी कुछ और था, जिसे भारत जाने से ठीक पहले बदल कर मैंने वाहियान कर लिया था. मैंने सुना था कि भारत में आजकल साहित्य, समाज, राजनीति और धर्म, सभी जगह वाहवाही यानी चाटुकारिता की संस्कृति हावी है और सफल होने के लिए वाहवाहकारी संप्रदाय में दीक्षित होना जरूरी है. इस संप्रदाय का मूल मंत्र है कि अगर अपनी वाहवाह करवानी है, तो पहले किसी ‘योग्य’ व्यक्ति को गुरु बना कर उसकी वाहवाह करनी होगी. बाद में मौका देख कर गुरु को उसी तरह बेदखल कर उसकी जगह ले ली जाती है.

यह सब सुन कर मैंने अपना नाम ही वाहियान रख लिया.

मैं पिछले दिनों भारत की यात्रा पर गया था, जिसका पूरा वृत्तांत तो बाद में लिखूंगा, फिलहाल नोट्स के रूप में मोटी-मोटी बातें लिख रहा हूं. मैंने भारत को बहुत तरक्कीपसंद देश पाया. वहां के लोग दूसरों की तरक्की इतनी ज्यादा पसंद करते हैं कि अपनी तरक्की भूल उनकी तरक्की की जड़ों में मट्ठा डालने में लग जाते हैं. मट्ठा वहां पीने से ज्यादा जड़ों में डालने के काम आता है. लोग बहुत सवेरे उठ कर नित्यकर्मों से निवृत्त होने चल देते हैं.

उनके नित्यकर्मों में सर्वोपरि नजदीकी बैंक या एटीएम की लाइन में लगना है. गीता के बताये मार्ग ‘हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्’ पर चलते हुए वे अगर अपने कालेधन के एक-दो नोट बदलवाने में सफल हो जाते हैं, तो सुख भोगने चले जाते हैं, जिनमें अपना और अपने परिवार का पेट भरना प्रमुख है. वरना स्वर्ग को प्राप्त होकर वे सभी सांसारिक दुखों से मुक्त हो जाते हैं. कालाधन वहां केवल आम आदमी के पास पाया जाता है, नेता, अफसरशाह, उद्योगपति इस लत से दूर ही रहते हैं.

भारत में बेरोजगारी का नामोनिशान नहीं है, क्योंकि वहां के राजा अपनी प्रजा के लिए नित नये रोजगार सृजित करते रहते हैं.

आजकल वहां हजार, पांच सौ के पुराने नोटों को कुछ कम मूल्य में बदलने का रोजगार खूब चल रहा है. संभवत: पैरों से लाचार होने के कारण खुद लाइन में न लग पानेवाले धन्ना सेठों के नोट बदलवाने के लिए कुछ परोपकारी मजदूर स्वेच्छा से बार-बार लाइन में लगते हुए भी पाये गये. बाद में सरकार ने उनकी उंगली पर अमिट समझी जानेवाली स्याही लगाना शुरू कर स्याही मिटानेवालों को रोजगार दिया.

लोग इस नये खेल से बहुत प्रसन्न हैं और प्रसन्नता-प्रसन्नता में एक-दूसरे का सिर फोड़ देते हैं. बहुत कोशिश करने पर भी कवि लोग ‘भक्तों की परेशानी में भी सुख का अनुभव करने’ में विरोधाभास अलंकार है या अतिशयोक्ति, यह तय नहीं कर पाते.

यों तो सब लोग हर निर्णय में शासक के साथ रहते हैं, पर जो इक्का-दुक्का नहीं रहते या जिनके बारे में समझा जाता है कि ये नहीं होंगे, उन्हें देशद्रोही बता कर उन पर लानत भेजी जाती है. सीमा पर शांति है और सैनिकों के लगातार मरने से वह जरा भी भंग नहीं होती.

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