सर्वोच्च न्यायालय ने दो अलग-अलग फैसलों में गर्भस्थ शिशु की लिंग जांच पर कड़ा रुख अपनाया है. मंगलवार को न्यायाधीशद्वय दीपक मिश्र और एसके सिंह की खंडपीठ ने उच्च न्यायालयों से भ्रूण की लिंग जांच से संबंधित मुकदमों की निगरानी रखने के लिए तीन न्यायाधीशों की समिति बनाने का निवेदन किया है.
इस फैसले में राज्यों से जन्म पंजीकरण के आंकड़े एक जगह रखने का निर्देश भी दिया गया है. दूसरे निर्णय में न्यायाधीशद्वय दीपक मिश्र और अमिताव रॉय की खंडपीठ ने इंटरनेट से लिंग परीक्षण के सभी विज्ञापन हटाने का आदेश दिया है. दोनों फैसलों में छह साल से कम आयु के बच्चों में बच्चियों के लिंगानुपात घटने पर चिंता जतायी गयी है. वर्ष 2001 की जनगणना में इस आयु वर्ग में 1000 बच्चों पर बच्चियों की संख्या 927 थी, जो 2011 में घट कर 919 रह गयी थी. आंकड़े बताते हैं कि ग्रामीण भारत में शहरों से स्थिति बेहतर है.
पिछली जनगणना में गांवों में 1000 बच्चों पर 923 बच्चियां थीं, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह संख्या महज 905 ही थी. लड़कियों की तुलना में लड़कों को संतान के रूप में अधिक पसंद करने की रूढ़िवादी सामाजिक समझ से आधुनिक भारत अभी तक मुक्त नहीं हो पाया है. गर्भाधान और जन्म से पहले लिंग परीक्षण कर गर्भपात कराने की व्यापक प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए 1994 में बने कानून का उद्देश्य लिंगानुपात की घटती दर पर नियंत्रण करना था. लेकिन, अनेक शहरों में चोरी-छिपे आज भी यह अपराध लगातार जारी है. अगर बच्चों की संख्या में इस असंतुलन को समय रहते नहीं रोका गया, तो आगामी कई पीढ़ियों तक हमारी आबादी को इसके दुष्परिणामों को भुगतते रहने के लिए अभिशप्त रहना होगा.
यह संतोष की बात है कि धीरे-धीरे ही सही, बीते 20 सालों में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में जनसंख्या का औसत लिंगानुपात सुधर रहा है, किंतु बच्चों के मामलों में ऐसा नहीं है. देश के विकसित और उज्ज्वल भविष्य के लिए यह गंभीर चेतावनी है. देश में भ्रूण हत्या और बच्चियों को लेकर सामाजिक पूर्वाग्रह से मुक्ति सिर्फ कानूनी प्रावधानों, अदालती आदेशों और सरकारी कोशिशों से नहीं हो सकती है, समाज को भी इस प्रयास में अपनी सकारात्मक भूमिका निभानी होगी. अवैध लिंग परीक्षण पर रोक के साथ इस मुद्दे पर जागरूकता बढ़ाने की भी जरूरत है.