कहां पहुंचायेगी यह नोटबंदी!

उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार सरकार ने नोटबंदी के फैसले से अगर कालेधन और भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड़ी है, तो हाल ही में एनपीए के तहत विवादास्पद विजय माल्या सहित देश के 63 बड़े उद्योगपतियों को इतनी बड़ी रियायत क्यों दी गयी? एक तरफ 8 नवंबर को नोटबंदी का ऐलान हुआ, तो दूसरी तरफ बड़े सरकारी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 18, 2016 6:48 AM
उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
सरकार ने नोटबंदी के फैसले से अगर कालेधन और भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड़ी है, तो हाल ही में एनपीए के तहत विवादास्पद विजय माल्या सहित देश के 63 बड़े उद्योगपतियों को इतनी बड़ी रियायत क्यों दी गयी? एक तरफ 8 नवंबर को नोटबंदी का ऐलान हुआ, तो दूसरी तरफ बड़े सरकारी बैंक ने इन उद्योगपतियों के लगभग 7,000 करोड़ के बैंक-कर्ज को बट्टा-खाते (राइट-आॅफ) डालने का फैसला किया. विभिन्न सरकारी बैंकों ने बीते कुछ सालों में साढ़े छह लाख करोड़ से अधिक के काॅरपोरेट-कर्ज को बट्टा-खाते डाला है. इधर, नोटबंदी के बाद देश में अब तक तीन दर्जन से ज्यादा लोगों की रुपया-निकासी की बैंक-लाइन में लगे-लगे मौत हो गयी. कई लोग घर या अस्पताल में मर गये, क्योंकि उनके पास इलाज के पैसे नहीं थे. बाजार-कारोबार ठप्प पड़े हैं.
दिल्ली-एनसीआर के जिस इलाके में मैं रहता हूं, वहां मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय परिवारों में पूर्वनिर्धारित कई शादियां नकदी के अभाव में स्थगित हो रही हैं, पर कर्नाटक की पूर्व भाजपा सरकार में मंत्री रहे एक विवादास्पद कारोबारी के घर में सैकड़ों करोड़ के खर्च से शाही-अंदाज में शादी हुई. देश के कुछ हिस्सों में 8 नवंबर के ऐन पहले सत्ताधारी पार्टी के नेता करोड़ों की रकम बैंकों में जमा कराते पाये गये. आम लोगों के पास इस वक्त आने-जाने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं हैं, पर कई दलों की बड़ी-बड़ी रैलियां हो रही हैं. लोगों को लाने और छोड़ने के लिए बड़े-बड़े वाहनों का इस्तेमाल हो रहा है. करोड़ों के खर्च वाले क्रिकेट के मैच हो रहे हैं. ये सारे घटनाक्रम सरकार के महत्वाकांक्षी फैसले को संदिग्ध बनाते हैं.
सरकार की अपनी विशेषज्ञ टीमों और बड़े अर्थशास्त्रियों का आकलन है कि देश में जितना भी कालाधन है, उसका महज छह फीसदी ही नकदी रूप में है. शेष सोना, रियल एस्टेट, बेनामी खातों, हवाला कारोबार या विदेशी बैंकों के जरिये संचालित है.
ऐसे में नोटबंदी के फैसले से कालाधन पर निर्णायक अंकुश लगाने की बात गले नहीं उतरती. अब तक सरकारी योजनाकारों ने देश को बताया भी नहीं कि किस शोध और रणनीतिक कार्ययोजना के तहत नोटबंदी का फैसला हुआ! लोकतांत्रिक कामकाज का तकाजा था कि कम-से-कम 8 नवंबर के बाद सरकार की तरफ से एक मुकम्मल कार्ययोजना का खाका देश के समक्ष पेश किया जाता.
लेकिन, सत्ताधारी नेताओं-मंत्रियों की तरफ से तो अब तक सिर्फ जुमले ही उछाले जा रहे हैं कि ‘देश के लिए जनता को कुछ दिन कष्ट उठाना चाहिए’ या कि ‘50 दिन बाद जनता के सपनों का भारत तैयार मिलेगा!’ मीडिया के बड़े हिस्से, खासकर चैनलों ने शुरुआती दिनों में इसे ‘बड़ी क्रांति’ के रूप में प्रचारित किया, लेकिन अब उनकी भ्रांति भी मिटने लगी है.
देश-दुनिया की बड़ी आर्थिक न्यूज एजेंसियां, प्रमुख अखबार और बड़े अर्थशास्त्री अब सवाल उठाने लगे हैं. भारत सरकार के वित्त सलाहकार रह चुके प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री डाॅ अशोक देसाई, प्रो रवि श्रीवास्तव, अभिजीत सेन, प्रो जयति घोष, प्रो प्रभात पटनायक और प्रो सीपी चंद्रशेखर सहित अनेक अर्थशास्त्री नोटबंदी के नकारात्मक असर पर बोल चुके हैं. दिलचस्प है कि सरकार के अपने अर्थशास्त्री इनके सवालों पर खामोश हैं.
रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे रघुराम राजन विमुद्रीकरण-नोटबंदी को कालेधन पर अंकुश की रणनीति के तौर पर पहले से खारिज करते रहे हैं. यह सही है कि एनपीए में पिचकती बैंकिंग-व्यवस्था को नोटबंदी से कुछ मदद जरूर मिल सकती है. कुछ कालाधन पकड़ में आ सकता है. लेकिन, उस पर निर्णायक अंकुश तो बिल्कुल ही संभव नहीं है.
सन् 1978 में 1000, 5000 और 10000 रुपये के नोट चंद लोगों के पास हुआ करते थे, जिन्हें मोरारजी की सरकार ने बंद किया था. उससे बिल्कुल अलग आज 500 और 1000 रुपये के नोट ही सर्वाधिक लोक-प्रचलित नोट हैं, जिन्हें आज बंद किया गया है. इससे कुल 15 लाख करोड़ रुपये के नोट चलन से बाहर हुए. कुल मौद्रिक नोटों में यह 86 फीसदी है.
इनके बदले बैंकों से इस वक्त रोजाना बमुश्किल 10-12 हजार करोड़ के नोटों का ही हस्तानांतरण हो रहा है. नोट तो ठीक-ठाक संख्या में छपे हैं, पर एटीएम का पुनर्संयोजन नहीं किया गया. निकासी मुद्रा की सीमा बहुत कम रखी गयी है. इससे भारी मौद्रिक तंगी पिछले कई दिनों से कायम है. अर्थतंत्र और आम जनजीवन को इससे करारा धक्का लगना लाजिमी है.
हिंदी के कुछ ‘चीखू (टीवी) चैनलों’ और ‘भक्तजनों’ को छोड़ कर सभी प्रमुख आर्थिक विशेषज्ञ मान रहे हैं कि सरकार ने जनता को बुरी तरह निराश और परेशान किया है. इससे न तो कालेधन पर अंकुश लगेगा, न अर्थव्यवस्था को उछाल मिलेगी, उल्टे समस्या बढ़ेगी. जहां तक विपक्ष का सवाल है, उसने भी देश की आम जनता को निराश किया है. इस तरह के अभूतपूर्व संकट पर जिस तरह का राजनीतिक विवेक और साहस उसे साझा तौर पर दिखाना चाहिए था, वह न तो संसद में दिख रहा है, न सड़क पर.

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