लिखे जो खत तुझे…
वीर विनोद छाबड़ा व्यंग्यकार वे भी क्या दिन थे, जब बावरे होकर भागते थे डाकिये के पीछे- चिट्ठी आयी, चिट्ठी आयी. पिताजी उर्दू के अफसानानिगार थे. रोज ढेरों चिट्ठियां आती थीं. उर्दू में और हिंदी में भी. हिंदी तो हम समझ जाते थे, लेकिन कुछ मजेदार उर्दू वाली चिट्ठियां पिताजी पढ़ कर सुनाते थे. अंगरेजी […]
वीर विनोद छाबड़ा
व्यंग्यकार
वे भी क्या दिन थे, जब बावरे होकर भागते थे डाकिये के पीछे- चिट्ठी आयी, चिट्ठी आयी. पिताजी उर्दू के अफसानानिगार थे. रोज ढेरों चिट्ठियां आती थीं. उर्दू में और हिंदी में भी. हिंदी तो हम समझ जाते थे, लेकिन कुछ मजेदार उर्दू वाली चिट्ठियां पिताजी पढ़ कर सुनाते थे. अंगरेजी में ज्यादातर हमारे मामा ही लिखते थे. अंगरेजी में एमए थे. उस जमाने में अंगरेजी वाले को तोप माना जाता था. हमें भी बड़ा शौक था अंगरेजी में लिखने का. टूटी-फूटी अंगरेजी में अपने रिश्तेदारों को लिखते थे. बाद में पता चला वे बहुत हंसते थे.
बड़े होकर हम लंबी-लंबी चिट्ठियां लिखने लगे, लेकिन हिंदी में. बड़ा मजा आता था. पहले घर भर के लोगों का नाम लिखा. उनकी तरफ से चिट्ठी पानेवाले के घर भर के सदस्यों को नमस्ते. इसी में चिट्ठी भर जाती थी. बचे हिस्से में अड़ोसी-पड़ोसियों का हाल-चाल और साथ में यह जिक्र करना कि किसी चीज की जरूरत हो, तो बेझिझक लिखें.
सुख-दुख, पास-फेल, जनम-मरन आदि सबका सहारा एक अदद चिट्ठी ही तो थी. कुछ लोग मानते थे कि कई दिनों तक चिट्ठी न आये, तो समझो सुख ही सुख है. लेकिन, कई को चिंता रहती थी कि जरूर चाचा का बेटा फेल हुआ होगा, इसीलिए मारे शर्म के लिख नहीं रहे. गम की खबर हो तो पोस्ट कार्ड थोड़ा फाड़ दिया जाता था.
एक मजेदार किस्सा याद आता है. हमारी मामी पढ़ी-लिखी नहीं थीं. एक साथ दस-पंद्रह पोस्ट कार्ड किसी से लिखवा कर रख लेती थीं. सबमें एक ही इबारत. एक बार उनकी बेटी मुन्नी भोपाल से लखनऊ वापस गयी. रिवाज के अनुसार पहुंचने की सूचना देना जरूरी होता था. लेकिन मामी के हर खत में जिक्र होता था कि मुन्नी नहीं आयी है. आखिरकार जान-पहचान के एक सिपाही की मदद ली गयी. जहां पोस्ट कार्ड मिलने में दिक्कत होती थी या जो सुस्त होते थे, वहां जवाबी पोस्ट कार्ड भी चलन था.
चिट्ठी के महत्व का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बड़े-बड़े महापुरुषों की चिट्ठियों को संभाल कर रखा गया है.
उन चिट्ठियों के संग्रह छपे. साहित्य में इसका बहुत महत्व था. इनसे ही पता चलता था कि लेखक किस मानसिक दौर से गुजर रहा है. देशकाल और उसकी पारिवारिक परिस्थितियां कैसी हैं? उसकी अगली रचना का विषय क्या है? हम भी अपने मित्रों और नाते-रिश्तेदारों को अक्सर खत लिखते थे, इस उम्मीद में कि हो सकता है हमारा भी महान बनने का कभी चांस आया, तब यह चिट्ठियां बहुत काम आयेंगी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
एक बार हमने लेख के साथ लंबी-चौड़ी चिट्ठी भी संपादकजी को लिखी. लेख नहीं छपा, चिट्ठी लेख के रूप में छप गयी. चिट्ठियों की बदौलत फिल्मों में बड़े-बड़े उल्ट-फेर हुए. चिट्ठी महबूबा के हाथ न लग उसकी सहेली के हाथ लग गयी. फिल्मी गीतों में भी चिट्ठी बड़े प्रेम से बांची गयी- ये मेरा प्रेमपत्र पढ़ कर तुम नाराज न होना.….. खत लिख दे सांवरिया के नाम बाबू… चिट्ठी आयी है चिट्ठी आयी है… …फूल तुम्हें भेजा है खत में, फूल नहीं मेरा दिल है.….. लिखे जो खत तुझे वो तेरी याद में…
हमें याद है यूनिवर्सिटी में हमने एक प्रेमपत्र लिखा था. नीचे नाम नहीं लिखा. अपने दोस्त को दिया कि जा हमारी महबूबा को दे आ. वह दे आया. लेकिन, हमारी महबूबा चिट्ठी पर फिदा होकर उसकी हो गयी. हम दूर खड़े डोली उठाते कहारों और उससे उठे गुब्बार को देखते रह गये.
अब चिट्ठी नहीं आती, खूने-जिगर से लिखे खत भी नहीं. हम यह नहीं कहते कि दुनिया से मोहब्बत खत्म हो गयी है. मोहब्बत जिंदा है, लेकिन खत की शक्ल अब दस्तावेजी नहीं रही. डिजिटल हो गयी है.