विपक्ष की मांग के निहितार्थ

विश्वनाथ सचदेव वरिष्ठ पत्रकार मुंबई की लोकल ट्रेन में मेरे दो सहयात्री बैंकों के सामने लगी कतार के अपने अनुभव साझा कर रहे थे. उन्होंने प्रधानमंत्री को ‘अनुभवहीन’ और ‘नाटक करनेवाला’ तक कह दिया. पास बैठा एक युवक अचानक उत्तेजित हो गया- ‘बकवास बंद कीजिये… घर की सफाई करते हैं, तो नाक में धूल जायेगी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 24, 2016 6:39 AM

विश्वनाथ सचदेव

वरिष्ठ पत्रकार

मुंबई की लोकल ट्रेन में मेरे दो सहयात्री बैंकों के सामने लगी कतार के अपने अनुभव साझा कर रहे थे. उन्होंने प्रधानमंत्री को ‘अनुभवहीन’ और ‘नाटक करनेवाला’ तक कह दिया. पास बैठा एक युवक अचानक उत्तेजित हो गया- ‘बकवास बंद कीजिये… घर की सफाई करते हैं, तो नाक में धूल जायेगी ही…’ तभी स्टेशन आया और दोनों सहयात्री उतर गये.

पर, वह युवक अब भी उत्तेजित था. स्पष्ट है, उसे प्रधानमंत्री मोदी की आलोचना स्वीकर नहीं थी. देश में करोड़ों लोग प्रधानमंत्री के पक्ष में होंगे. करोड़ों विरोध में भी होंगे. इनमें बहुत से घोर विरोधी होंगे, तो घोर पक्षधर भी होंगे. मैं सोच रहा था, उस युवक को उन दो लोगों द्वारा प्रधानमंत्री की आलोचना ‘बकवास’ क्यों लगी. ऐसा लगना भी शायद गलत नहीं है, पर ऐसी तीव्र प्रतिक्रिया क्यों?

वह युवक तो एक सामान्य नागरिक है, हमारे सांसद भी अक्सर संसद में बहस के दौरान गुस्से से कांपते दिखाई देते हैं. संसद के वर्तमान सत्र में सदन के दोनों ओर से ऐसी प्रतिक्रिया देखी जा सकती है. आखिर क्यों हम दूसरे की बात सुनना-समझना नहीं चाहते? क्यों हमें लगता है कि हमारी ही बात सही है या फिर दूसरे को विरोध करने का अधिकार नहीं है?

जिस जनतांत्रिक प्रणाली को हमने अपने लिए स्वीकार किया है, उसमें विचार-विमर्श ही एकमात्र मान्य तरीका है, विवाद सुलझाने और किसी निर्णय पर पहुंचने का. इस प्रक्रिया में दूसरे की बात को ‘बकवास’ मानना या ‘नाटक’ बताना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता.

चार दिन से संसद की कार्रवाई कुल मिला कर ठप-सी है. लोकसभा में तो शोर-शराबे के बीच ‘जरूरी कामकाज’ निपटाने की कोशिश जारी है, पर राज्यसभा में तो, यह लेख लिखे जाने तक, बार-बार कार्रवाई स्थगित ही हो रही है. बहस का मुद्दा नोटबंदी है और विपक्ष की मांग है कि प्रधानमंत्री स्वयं सदन में आयें और जवाब दें. लेकिन, प्रधानमंत्री इसके लिए तैयार नहीं लग रहे. क्यों नहीं लग रहे, यह तो वही जानें. हो सकता है संसदीय तौर-तरीकों के अनुसार सदन में इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री की उपस्थिति जरूरी न हो. लेकिन, मुद्दे और स्थिति की गंभीरता को देखते हुए प्रधानमंत्री की सदन में उपस्थिति किसी भी दृष्टि से गलत नहीं होगी.

सामान्यतः नोटबंदी जैसे निर्णयों की घोषणा रिजर्व बैंक अथवा वित्तमंत्री द्वारा की जाती है. पर, प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं यह घोषणा करके शायद यही बताना चाहा था कि यह महत्वपूर्ण निर्णय उनका अपना है. शायद मंत्रिमंडल को भी घोषणा के कुछ ही समय पहले विश्वास में लिया गया था.

ऐसा क्यों? इसके दो उत्तर हो सकते हैं- पहला, प्रधानमंत्री मंत्रिमंडल से सलाह-मशविरा करना जरूरी नहीं समझते. दूसरा, निर्णय का श्रेय प्रधानमंत्री स्वयं लेना चाहते हैं. यदि निर्णय का श्रेय प्रधानमंत्री को मिलता है, तो निश्चित रूप से उसके क्रियान्वयन की खामियों के परिणामों के लिए भी प्रधानमंत्री ही उत्तरदायी माने जायेंगे. विपक्ष यही कह रहा है. इसीलिए यह मांग की जा रही है कि प्रधानमंत्री स्वयं सदन में उपस्थित हों.

यदि सांविधानिक दृष्टि से प्रधानमंत्री का सदन में उपस्थित रहना जरूरी न भी हो, तब भी प्रधानमंत्री द्वारा उपस्थित न रहने की जिद क्यों. विमुद्रीकरण के निर्णय के बाद से लेकर अब तक प्रधानमंत्री सार्वजनिक मंचों से इस बारे में अपनी बात कह चुके हैं, तो फिर संसद में क्यों नहीं कहना चाहते?

हो सकता है इस बारे में विपक्ष की जिद उचित न हो, पर क्या सरकार का मुखिया होने के नाते प्रधानमंत्री का यह कर्तव्य नहीं बनता कि वे बच्चों जैसी जिद न करें? वैसे भी, सांविधानिक जनतंत्र में प्रधानमंत्री का संसद के सदनों में उपस्थित रहना एक अच्छी परंपरा है. पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस परंपरा की नींव रखी थी. जनतंत्र की सफलता के लिए नेहरूजी मजबूत विपक्ष की बात भी कहते थे. इसीलिए वे विपक्ष को आदर देते थे. उनके आदर देने का अर्थ है- विपक्ष की बात को सुनना और समझना.

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारी संसद में काम-काज का बाधित होना एक परिपाटी-सी बन गयी है. समझ नहीं आता कि हमारे सांसद सड़क और संसद में फर्क करने की आवश्यकता क्यों महसूस नहीं करते. किसी की बात का विरोध करना, व्यवस्था पर सवाल उठाना, अपने अधिकारों के लिए अड़ना, ये सब संसदीय व्यवस्था का हिस्सा है. लेकिन, सदन में नारेबाजी करना किसी भी दृष्टि से स्वीकार्य नहीं है. यह तरीका स्वस्थ जनतंत्र की निशानी नहीं है. जनतांत्रिक मूल्यों-परंपराओं का तकाजा है कि सदन में, और सदन के बाहर भी, हमारे राजनेता और राजनीतिक दल बचकानी जिद से बचें और अपने विवेकशील व्यवहार का परिचय दें.

यह सही है कि बहुमत वाला दल प्रधानमंत्री को चुनता है, लेकिन प्रधानमंत्री दल-विशेष का नहीं होता, सारे देश का होता है. निर्वाचित होने के बाद प्रधानमंत्री की भूमिका व्यापक हो जाती है. प्रधानमंत्री देश का नेता होता है, पूरे देश को विश्वास में लेकर चलना होता है उसे. पर पता नहीं, प्रधानमंत्री मोदी भाजपा के ही नेता क्यों बने रहना चाहते हैं!

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