नालंदा की स्वायत्तता का प्रश्न
पुष्पेश पंत वरिष्ठ स्तंभकार यह बात बच्चा-बच्चा जानता है कि जब यूरोप के देश अंधविश्वास की बेड़ियों में जकड़े थे और लगभग पूरी आबादी निरक्षर थी, उस वक्त भारत में ऐसे विश्वविद्यालय स्थापित हो चुके थे, जो दुनियाभर में मशहूर थे. इनमें नालंदा की प्रतिष्ठा सर्वोपरि थी. यहीं बरसों रह कर चीनी यात्री ह्वेन सांग […]
पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
यह बात बच्चा-बच्चा जानता है कि जब यूरोप के देश अंधविश्वास की बेड़ियों में जकड़े थे और लगभग पूरी आबादी निरक्षर थी, उस वक्त भारत में ऐसे विश्वविद्यालय स्थापित हो चुके थे, जो दुनियाभर में मशहूर थे. इनमें नालंदा की प्रतिष्ठा सर्वोपरि थी. यहीं बरसों रह कर चीनी यात्री ह्वेन सांग ने बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया था और इसी यात्रा वृत्तांत से हमें नालंदा के गौरवपूर्ण अतीत का पता चलता है.
दुर्भाग्यवश बाद की सदियों में धर्मांध विदेशी आक्रमणकारियों ने नालंदा को नष्ट कर खंडहर में बदल दिया. यही दुर्गति तक्षशिला और विक्रमशिला की भी हुई. भारत में विश्वविद्यालयों की स्थापना इसके बाद फिर तभी की जा सकी, जब अंगरेजों ने इस देश को गुलाम उपनिवेश में बदल दिया. यहां यह दोहराना जरूरी नहीं कि विलायत की नकल में जो विश्वविद्यालय भारत में स्थापित हुए, उनसे हमें कितना फायदा या नुकसान हुआ. याद रखने लायक बात यह है कि बरसों से नालंदा के पुनर्जन्म का सपना देखा जाता रहा है- एक ऐसा विश्वविद्यालय, जो मौलिक शोध और सभी विषयों में उत्कृष्टतम स्तरीय शिक्षण-प्रशिक्षण क्षणिक की सुविधा से संपन्न हो. चार-पांच साल पहले जब अंतरराष्ट्रीय सहयोग से यह पहल की गयी, तो जनमानस में उत्साह की लहर दौड़ गयी.
कई बड़े नाम इस परियोजना के साथ जुड़े थे- नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन और लॉर्ड मेघनाद देसाई सरीखे. सिंगापुर, जापान, थाईलैंड, श्रीलंका आदि देशों के विद्वान सलाहकार मंडल में शामिल किये गये. बिहार सरकार ने भी इसे अपना पूरा समर्थन दिया. लेकिन, विडंबना यह है कि जन्म से ही नालंदा का यह अवतार विवादों में घिर गया.
फिलहाल जिस विवाद की चुनौती हमारे सामने है, उसने इसके अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर दिया है.
मोदी सरकार ने पहले अमर्त्य सेन का चांसलर मेंटर के रूप में कार्यकाल बढ़ाने को मंजूरी नहीं दी और अब बिना वर्तमान चांसलर को कोई सूचना दिये गवर्निंग बोर्ड का ऐसा पुनर्गठन किया है कि उन्हें पदत्याग करने पर मजबूर होना पड़ा है. यह सज्जन सिंगापुर के पूर्व विदेश मंत्री रह चुके हैं और जाहिर है कि कोई भी स्वाभिमानी व्यक्ति इस व्यवहार को स्वीकार नहीं कर सकता. जिन लोगों का चयन क्या गया है, वे सुयोग्य पात्र हो सकते हैं, पर यह बात छिपाये नहीं छिप रही कि भाजपा की सदारत वाली सरकार के पास प्रतिभाशाली समर्थकों का घोर अभाव है.
इससे भी चिंताजनक विषय यह है कि सरकार का मानना है कि ‘अतिरिक्त सचिव स्तर’ का केंद्रीय ‘आला अफसर’ पदेन दिग्गज विद्वानों की बराबरी इस बौद्धिक बराबरी में कर सकता है.
अपने राजनीतिक आकाओं के प्रति उसकी स्वामिभक्ति चाहे असंिदग्ध हो इस गुण को विश्वविद्यालय की स्वायत्ता के लिए घातक ही समझा जाना चाहिए. नालंदा के संदर्भ में यह आश्वासन बारंबार दिया जाता रहा है कि न तो इसे अन्य देशी विश्वविद्यालयों की तरह यूजीसी की अपमानजनक अधीनता स्वीकार करनी पड़ेगी और न ही इसे हर छोटे काम की मंजूरी के लिए. मानव संसाधन मंत्रालय के बड़े बाबुओं के सामने लाज तज घुटने टेकने पड़ेंगे. आशा यह भी की जा रही थी कि चूंकि संयोजन की जिम्मेवारी विदेश मंत्रालय को सौंपी गयी है, इसलिए शिष्टाचार में कोई कसर नहीं होगी. लेकिन ये सारे भ्रम टूट चुके हैं.
मंत्रालय कोई भी हो, नौकरशाही खुद को सर्वोपर रखने की साजिश में लगी रहती है. पहले कुलपति गोपा सबरवाल के वेतनमान, सेवा सुविधाओं को सरकारी अधिकारियों की तुलना में रख कमतर तय करनेवाली रस्साकशी कभी देर तक चली थी. कमोबेश ऐसा ही अनुभव साउथ एशिया यूनिवर्सिटी का भी रहा है. अपने लोगों को उपकृत करने का लालच न तो विद्वान तज पाते हैं, न ही राजनेता! यही कारण है के नालंदा एक बार फिर सर्वनाश के कगार पर पहुंच गयी है.
अमर्त्य सेन मोदी के कट्टर आलोचक रहे हैं और यूपीए के चहेते, लेकिन यह सोचना गलत होगा कि सिर्फ इसी कारण नालंदा के साथ सौतेला बरताव हो रहा है. कुलपति के चुनाव से पदभार से मुक्त किये जाने तर स्वयं सेन के फैसले जनतांत्रिक नहीं कहे जा सकते. पिछले पांच छह वर्ष में भरपूर सरकारी समर्थन के बावजूद नालंदा में न तो छात्रों को आकर्षित किया जा सका है, न ही प्राध्यापकों को.
हाल में इस बात पर खासा कोहराम मचा रहा कि क्यों कोई भारतीय विवि संसार के श्रेष्ठ विवि की सूची में पहले दो सौ स्थानों तक नदारद है! नालंदा प्रकरण के बाद इस बेमतलब बहस का कोई प्रयोजन नहीं. असली लाइलाज बीमारी सरकारी हस्तक्षेप की है, जो उस स्वायत्तता का गला घोटती है, जिसके बाद न तो मौलिक शोध संभव है और न ही बेहतरीन पढ़ाई. जेएनयू हो या कोई दूसरा केंद्रीय विवि, सब इसी के शिकार हैं. आज देश की प्रतिभा को कुंठित करने के लिए न तो प्राचीन नालंदा को बरबाद करनेवाले किसी विदेशी हमलावर की जरूरत है, न मैकाले जैसे मक्कार की!