मुंडारी साहित्य की महत्ता

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया संविधान की आठवीं अनुसूची में जो भाषाएं शामिल हैं, उनमें साहित्य लेखन व्यवस्थित रूप से हो रहा है. इसके पीछे एक कारण के रूप में तो साहित्य अकादेमी द्वारा उन भाषाओं में दिया जानेवाला पुरस्कार है. सरकारी पुरस्कार और प्रोत्साहन के जरिये उनकी बातें समय-समय […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 28, 2016 7:07 AM
डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
संविधान की आठवीं अनुसूची में जो भाषाएं शामिल हैं, उनमें साहित्य लेखन व्यवस्थित रूप से हो रहा है. इसके पीछे एक कारण के रूप में तो साहित्य अकादेमी द्वारा उन भाषाओं में दिया जानेवाला पुरस्कार है. सरकारी पुरस्कार और प्रोत्साहन के जरिये उनकी बातें समय-समय पर हमें सुनने को मिल जाती हैं. लेकिन, हमारे देश में ऐसी कई भाषाएं हैं, जिनको सरकारी पुरस्कार और प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है, फिर भी उन भाषाओं में लगातार लेखन हो रहा है.
उन भाषाओं में लेखन का ऐतिहासिक आधार भी है. भाषाविदों को शायद इस बात पर आपत्ति हो सकती है कि मैं उन्हें ‘भाषा’ कह रहा हूं, क्योंकि अब तक भाषा का जो ‘मानक’ बना है, वह उन्हें ‘बोली’ के रूप में संबोधित करता है. यानी भाषाविद् जिन्हें ‘बोली’ कहेंगे, उनका न सिर्फ पहले से व्यापक साहित्यिक आधार मौजूद है, बल्कि उन भाषाओं में अब भी बड़ी मात्रा में लेखन हो रहा है. यहां मैं मुंडारी भाषा और उसके साहित्य का उल्लेख करना चाहूंगा, जो आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं है.
मुंडारी भाषा की पहचान सहज ही बिरसा मुंडा से की जाती है. लेकिन, बिरसा मुंडा के समाज की साहित्यिक-सांस्कृतिक विरासत के बारे में बहुत कम परिचय मिलता है, जबकि मुंडारी का भाषा विज्ञान और उसका साहित्य बृहद रूप में मौजूद है. ‘मुंडारिका एनसाइक्लोपीडिया’ में जॉन होफमैन ने इन सबको संचयित किया है. मुंडारी मुंडा आदिवासियों की भाषा है (कुछ भाषाविद् इसे एक भाषा परिवार के रूप में भी देखते हैं).
मुंडारी साहित्य की बहुत बड़ी विरासत उसके मौखिक रूप में मौजूद है. मुंडारी का समृद्ध मौखिक साहित्य है. गीत, कथा, गाथा, लोकोक्तियां और मुहावरों की विपुल संपदा है. औपनिवेशिक समय में डब्ल्यूजी आर्चर ने मुंडारी गीतों को ‘मुंडा दुरंग’ के नाम से संकलित कराया था.
मुंडारी गीतों का यह अब तक सबसे बड़ा संकलन है. बाद में इस तरह के कई गीत संकलन तैयार हुए हैं, जिनमें आजादी के बाद जगदीश त्रिगुणायत द्वारा संकलित पुस्तक ‘बांसुरी बाज रही’ महत्वपूर्ण है. आजादी से पहले मेनास राम ओड़ेया ने ‘मतु रअ: कहनि’ अर्थात् ‘मतु की कहानी’ के नाम से पांच खंडों में मुंडाओं की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक यात्रा को सहेजने का काम किया. आजादी के बाद रामदयाल मुंडा के साथ दुलायचंद्र मुंडा, मनमसीह मुंडू, सिलास हेम्ब्रम, मंगल सिंह मुंडा इत्यादि लेखकों की एक पीढ़ी तैयार होती है. इनकी रचनाओं में अपने अतीत की स्मृति व संघर्ष की विरासत के साथ ही आधुनिक भारतीय समाज में आदिवासी समाज की आकांक्षाएं अभिव्यक्त हुई हैं. झारखंड आंदोलन के दौरान नयी पीढ़ी भी तैयार हुई. इनमें रेमिस कंदुलना, मनसिद्ध बड़ायुद, कुसलमय मुंडू, के साथ ही वीरेंद्र मुंडा, हेसेल सारु जैसे युवा रचनाकारों को भी शामिल किया जा सकता है.
चूंकि मुंडा आदिवासियों ने लंबे समय तक औपनिवेशिक शक्तियों का प्रतिरोध किया, इसलिए उनके साहित्य में सहज ही प्रतिरोध की चेतना अभिव्यक्त हुई है, लेकिन इसके बावजूद उनका विश्वबोध उनके लेखन में सहजीविता के विचार के साथ अभिव्यक्त हुआ है. मुंडारी साहित्य को समझने के लिए हमें दो बिंदुओं का आधार लेना पड़ता है- एक, मुंडाओं की सामाजिक बुनावट, दूसरा, मुंडाओं का बाह्य संपर्क.
मुंडाओं की समाज व्यवस्था सामंती मूल्यों पर आधारित समाज व्यवस्था नहीं रही है. मुंडा समाज ने सामूहिकता को अपने जीवन का मूलभूत आधार बनाये रखा, बावजूद इसके कि समय के प्रवाह में वह कई बार सामंती-औपनिवेशिक शक्तियों की गिरफ्त में रहा. श्रमजीवी समाज होने की वजह से इसने उत्पादन की प्रक्रिया में स्त्रियों की भागीदारी पर रोक नहीं लगाया. स्त्रियां कभी भी उनके यहां दोयम दर्जे की नागरिक नहीं रहीं.
लोकतांत्रिकता का यह ऐसा समाज रहा है, जिसने अपने युवक-युवतियों की आकांक्षाओं एवं भावनाओं के अभिव्यक्त होने के अवसर उपलब्ध कराये और उनके लिए अलग से संस्थागत व्यवस्थाएं दी. गीति:ओड़ा: मुंडाओं की ऐसी ही संस्था है. आदिवासी समाज की लोकतांत्रिक संस्थाओं घोटुल, धुमकुडिया, भगोरिया की तरह ही यह मुंडाओं की सांस्कृतिक संस्था है. जहां से मुंडा युवक-युवती प्रशिक्षित होकर अपने जीवन व समाज की जिम्मेवारी के लिए मजबूती से खड़े होते हैं.
मुंडारी समाज व्यवस्था की लोकतांत्रिकता और श्रमजीविता उनके साहित्यिक अभिव्यक्ति की रीढ़ है. अपनी इस समाज व्यवस्था से मुंडा रचनाकार विलग नहीं है. जब वह अपने से बाहर की दुनिया को देखता है, तो वहां की आपा-धापी, प्रतिस्पर्धा और परजीविता में स्वंय को समन्वित नहीं कर पाता है, और वह दो व्यवस्थाओं के द्वंद्व में अपनी व्यवस्था, अस्मिता और अस्तित्व को साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्त करता है. रेमिस कंदुलना की रचना ‘दिसुम सुरुद सुड़ा सगेन’ का मूल स्वर यही है. समय-समय पर बाह्य आक्रांताओं एवं शक्तियों से संघर्ष एवं संपर्क ने मुंडा समाज व्यवस्था को लगातार अस्थिर, अव्यवस्थित एवं भिन्न सामाजिक संरचना प्रदान किया है. इस संघर्ष-संपर्क-समन्वय ने मुंडाओं की चेतना को चिंतित एवं चिंतनशील किया, जिसकी अभिव्यक्ति हमें उनके साहित्य में मिलती है. इस संघर्ष-संपर्क-समन्वय को हम इन रूपों में देख सकते हैं- देवासुर संग्राम की पृष्ठभूमि, मुंडाओं का छोटानागपुर में प्रवेश, मुंडा-नागवंशी संघर्ष एवं समन्वय, सामंती एवं औपनिवेशिक पृष्ठभूमि, आजादी के बाद की परिस्थितियां.
हम कह सकते हैं कि जिस भाषा को कभी भी राष्ट्रीय संदर्भों में उल्लेखित नहीं किया जाता है, वह अपने अंदर भारतीयता के कई ऐसे अर्थों को समाहित किये हुए है, जो अब तक प्रकट नहीं है. मुंडारी जैसी कई भाषाएं आज केंद्र में नहीं हैं. अब भी हम उनके भाषिक स्वरूप, साहित्य और उनकी सृजनात्मकता से अपरिचित हैं. जहां अब भी लेखन जारी है.
ऐसी भाषाओं में मौजूद ऐतिहासिक-सांस्कृतिक विरासत को संभालने की प्राथमिक जिम्मेवारी उसी भाषा-भाषी की है. वैश्विक दुनिया में मुंडारी साहित्य में मौजूद संघर्ष और सौंदर्य के मूल्यों को उसकी युवा पीढ़ी किस दिशा में ले जाती है, यह निर्णायक प्रश्न है, क्योंकि वैश्वीकरण ने भाषाओं के लिए जितना मौका उपलब्ध किया है, उससे ज्यादा उसके लिए जोखिमों को पैदा किया है.

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