जनगायक रामशरण

प्रेम प्रकाश स्वतंत्र पत्रकार एक जनगीत है- ‘जब इस देश के नेताओं में लूट प्रवृत्ति आम हो गयी/ पूछ रही है चंबल घाटी मैं ही क्यों बदनाम हो गयी.’ यह जनगीत बिहार के दिवंगत सर्वोदयी साथी रामशरण भाई का है. इसे वे जेपी आंदोलन और बाद के दिनों में खूब गाते थे. डफली की थाप […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 30, 2016 5:54 AM

प्रेम प्रकाश

स्वतंत्र पत्रकार

एक जनगीत है- ‘जब इस देश के नेताओं में लूट प्रवृत्ति आम हो गयी/ पूछ रही है चंबल घाटी मैं ही क्यों बदनाम हो गयी.’ यह जनगीत बिहार के दिवंगत सर्वोदयी साथी रामशरण भाई का है. इसे वे जेपी आंदोलन और बाद के दिनों में खूब गाते थे. डफली की थाप के साथ झूम-झूम कर जब वे गाते थे, तो लोग बरबस उनसे जुड़ते चले जाते थे. उनके इस जादू के साक्षी विनोबा-जेपी के दौर के लाखों-हजारों लोगों से लेकर दिल्ली में जेएनयू कैंपस तक रहा है. अपने कुछ सालों के सामाजिक सेवा और शोध कार्य के दौरान रामशरण भाई से कई मर्तबा मिला और उन्हें सुना.

एक झोले में एक मोटी बिनाई का कुर्ता-धोती, एक पुरानी डायरी और एक-दो अन्य सामान. उनके साथ उनका जीवन इतना ही सरल और बोझरहित था. जहां तक मुझे याद है, अपने जीवन में वे दर्जनों संस्थाओं के सैकड़ों अभिक्रमों से जुड़े, लेकिन वे कभी वेतनभोगी नहीं बने.

जीवन को जीने का उनका यह कबीराई अंदाज ही था, जिसने उन्हें आजीवन तत्पर और कार्यरत तो बनाये रखा, लेकिन संलग्नता का मोह उन्हें कहीं से भी बांध न सका, न परिवार से और न ही संस्थाओं से. तभी तो उनके कंठ से जो स्वर फूटे, वे न सिर्फ धुले हुए थे, बल्कि सच्चे भी थे. शादी-ब्याह में दिखावे के बढ़े चलन पर उनका गीत याद आता है- ‘दुई हाथी के मांगै छै दाम / बेचै छै कोखी के बेटा के चाम / बड़का कहाबै छै कलजुग के कसाई…’

एमफिल के लिए चूंकि मैं ‘जयप्रकाश आंदोलन और हिंदी कविता’ पर काम कर रहा था, लिहाजा आंदोलन के दौर के कई ऐसे लोगों से मिलने का मौका मिला, जो रामशरण भाई जैसे तो पूरी तरह नहीं, पर थे उनके ही समगोत्रीय. सर्वोदय-समाजवादी आंदोलन में क्रांति गीतों की भूमिका कार्यकर्ता तैयार करने में सबसे जरूरी और कारगर रही है.

‘जय हो…’ और ‘चक दे इंडिया…’ गाकर जो तरुणाई जागती है, उसका ‘फेसबुक’ कभी भी इतना विश्वसनीय, दृढ़ और जुझारू नहीं हो सकता, जितना किसी आंदोलन की आंच को बनाये और जिलाये रखने के लिए जरूरी है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल की शब्दावली में कहें, तो ‘लोक’ की ‘परंपरा’ या तो आज कहीं पीछे छूट गयी है या फिर बदले दौर में इसकी दरकार को ही खारिज मान लिया गया है. देश में जनगायकों या लोकगायकों की ऐसी परंपरा का अब सर्वथा अभाव दिखता है. दक्षिण भारत में एक स्वर गदर का सुनाई पड़ता है, जो अपनी सांगठनिक और वैचारिक प्रतिबद्धताओं के कारण जन के बजाय कैडर की आवाज ज्यादा लगती है.

आंदोलन का जन-चेहरा जन-औजारों से ही गढ़ा जा सकता है. यह बात रामशरण भाई जैसे जनगायकों को देखने-जानने के बाद और ज्यादा समझ में आती है. पर, दुर्भाग्य से रामशरण भाई जैसे क्रांतिकारी लोकगायकों की बस स्मृतियां ही हमारे बीच हैं. न ही कहीं उनके गाये गीतों का कोई संकलन है और न ही उनकी आवाज की कोई रिकार्डिंग. पर हां, कुछ लोग आज भी ऐसे हैं, जिन्होंने उन्हें सुना है और उनके कई गीतों को कंठस्थ भी किये हुए हैं.

हालांकि, उन्हें भी इस बात का अंदाजा नहीं है कि उनके साथ एक कितने बड़े धरोहर से हमारा समय और समाज हाथ धो बैठेगा. एक जमाने में बिहार की प्रसिद्ध लोकगायिका विंध्यवासिनी देवी ने पूर्वांचली लोकगीतों के संग्रह का बीड़ा उठाया था. पर, आखिरी दिनों में वे भी थक गयीं, निराश हो गयीं. ऐसा इसलिए, क्योंकि ऐसे कामों के लिए सरकारी प्रोत्साहन तो नहीं ही मिलता है, समाज भी इसकी दरकार और अहमियत को नहीं समझता है.

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