कास्त्रो से गांधी का नाता!
चंदन श्रीवास्तव एसोसिएट फेलो, कॉमनकॉज कहते हैं, फांसी के हुक्म की तामील के लिए काल-कोठरी में जल्लाद पहुंचा, तो उससे शहीद भगत सिंह ने कहा, ‘ठहरो, मैं लेनिन की जीवनी पढ़ रहा हूं. अभी एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है.’ क्या फिदेल कास्त्रो ‘द स्टोरी ऑफ माय एक्सपेरिमेंट्स विद् ट्रूथ’ पढ़ते हुए गांधी […]
चंदन श्रीवास्तव
एसोसिएट फेलो, कॉमनकॉज
कहते हैं, फांसी के हुक्म की तामील के लिए काल-कोठरी में जल्लाद पहुंचा, तो उससे शहीद भगत सिंह ने कहा, ‘ठहरो, मैं लेनिन की जीवनी पढ़ रहा हूं. अभी एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है.’ क्या फिदेल कास्त्रो ‘द स्टोरी ऑफ माय एक्सपेरिमेंट्स विद् ट्रूथ’ पढ़ते हुए गांधी के बारे में कुछ ऐसा ही कह सकते थे? दूसरे शब्दों में, क्या दो क्रांतिकारियों महात्मा गांधी और फिदेल कास्त्रो के बीच कोई मेल बिठाया जा सकता है?
भूली-बिसरी मगर विचारोत्तेजक किताब ‘द रेटॉरिक ऑफ रिवोल्ट’(लेखक, पॉल डी ब्रांडेस) अपने पाठक को गांधी और कास्त्रो के बीच ऐसी किसी तुलना से मना करती है. किताब का मूल तर्क है कि हर क्रांति का एक मुहावरा होता है. सो, क्रांतियों के मुहावरे के बीच बुनियादी अंतर क्रांतिकारियों की तकनीक और व्यक्तित्व के भी भेद का संकेतक है. ब्रांडेस का निष्कर्ष है कि क्रांतियों के अगुआ हरेक को खुश नहीं कर सकते, कास्त्रो और लेनिन पर केंद्रित अध्याय में ब्रांडेस ने इसे बखूबी दिखाया है. लेकिन, गांधी के बारे में वे कहते हैं कि वे अपने विरोधी से भी प्रेम कर सकते थे. सो, गांधी की क्रांति का मुहावरा बाकियों से अलग है.
पॉल डी ब्रांडेस के तर्क की रोशनी में सोचें, तो लगेगा अमेरिका-विरोध ‘फिदेल कास्त्रो’ शीर्षक क्रांतिकथा की बुनावट का केंद्रीय मुहावरा है. कास्त्रो अमेरिकी राजसत्ता का क्षय देखना चाहते थे और उनकी मृत्यु पर ब्रिटिश और अमेरिकी अखबारों की जहरबुझी रिपोर्टिंग इस धारणा को और भी पुष्ट करती है.
मशहूर ब्रिटिश अखबार संडे टाइम्स ने जो सुर्खी लगायी, उसका हिंदी अनुवाद होगा- ‘पश्चिम के पीड़क की 90 की उम्र में मौत.’ एक विशेषण से संतोष ना हुआ, तो अपने उपशीर्षक में अखबार ने दो विशेषण और जोड़े. कहा कि ‘क्रूर आततायी बन चले क्रांतिकारियों के नायक (कास्त्रो) की मौत पर दुनिया का जनमत दो खेमों में बंटा.’ तनिक संतुलन का परिचय देता, इससे कहीं बेहतर शीर्षक न्यूयाॅर्क टाइम्स का था जिसने लिखा- ‘अमेरिका की अवज्ञा करनेवाले क्यूबाई क्रांतिकारी फिदेल कास्त्रो की 90 की उम्र में मौत!’ वामपंथी रुझान वाले द गार्जियन ने संयम बरतने के बावजूद अपने संपादकीय में एक जगह कह ही दिया कि एक खेमा उन्हें अमेरिका के खिलाफ खड़े क्रांतिकारी नायक के रूप में देखता है, तो दूसरा मानवाधिकारों को कुचलनेवाले तानाशाह के रूप में.
बेशक कास्त्रो अपने अमेरिका-विरोध में अप्रतिम हैं. बीसवीं सदी के आखिर के चार दशकों में नौ अमेरिकी राष्ट्रपतियों की ताकत के सामने यह योद्धा अविचल डटा रहा. क्या यह करिश्मा सिर्फ फौजी ताकत या फिर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर की जानेवाली कूटनीतियों के भरोसे संभव है?
क्यूबा की सैन्य-शक्ति या फिर अमेरिकी सामरिक-आर्थिक घेरेबंदी की सच्चाई के सामने होते शायद ही कोई ऐसा माने. कुछ और होना चाहिए फिदेल कास्त्रो के अमेरिका-विरोध की ताकत का स्रोत. अगर अमेरिका ‘पश्चिमी दुनिया’ शब्द से इंगित होनेवाली लिबरल डेमोक्रेसी के राजनीतिक आदर्श ‘व्यक्ति की स्वतंत्रता’ का एक प्रतीक है, तो फिर इस प्रतीक के विरुद्ध खड़े होने के लिए कोई वैकल्पिक विचार या आस्था चाहिए. क्या विकसित मुल्कों के उदारवाद से परे जाती ऐसी कोई निजी आस्था फिदेल कास्त्रो की ताकत का स्रोत थी?
इसका एक उत्तर मिलता है मशहूर पत्रिका ‘प्लेब्वॉय’ में छपे कास्त्रो के एक साक्षात्कार में. कास्त्रो अपने निजी जीवन का राज खोलते हुए कहते हैं कि ‘‘धन-दौलत, भौतिक संपदा मेरे प्रेरक नहीं. पद-प्रतिष्ठा, महिमा और प्रसिद्धि से भी मुझे प्रेरणा नहीं मिलती. मुझे प्रेरित करते हैं विचार. विचारशील आस्था ही मनुष्य को संघर्ष की ओर खींचनेवाली प्राथमिक शक्ति है.
अगर सच में किसी सोच के प्रति आपकी निष्ठा हो, तो हर गुजरते साल के साथ संघर्ष के प्रति आश्वस्ति का भाव आप में बढ़ता जाता है. निजपन का अहंकार गलने लगता है, त्याग की लौ तेज होती जाती है. खुद को महत्व देने का वह भाव, जो हर मनुष्य में होता है, समाप्त होने लगता है. खुद को महत्व देने के भाव से आप परे नहीं गये, मान लिया कि आप अनूठे और अपरिहार्य हैं, तो फिर आप पद-प्रतिष्ठा और धन के मोह में पड़ते हैं, उन्हें बचाने और जुगाने में लग जाते हैं. शायद मेरे मन में यह सोच घर कर गयी है कि व्यक्ति की महिमा आपेक्षिक ही है परम नहीं, क्योंकि इतिहास व्यक्ति नहीं, जनता बनाती है’’.
व्यक्ति की स्वतंत्रता को परम मानने और इस स्वतंत्रता को आर्थिक हितों से संचालित सोचने की लिबरल डेमोक्रेसी की रूढ़ी की कुछ ऐसी ही काट गांधी-विचार में है. भौतिक जगत के पार देखने-सोचने का विचार गांधी की आस्तिकता की देन है और कास्त्रो के प्रेमी और द्रोही दोनों जानते हैं कि ईसा मसीह के प्रतीक से कास्त्रो का कोई अनिवार्य विरोध नहीं था. क्या अचरज कि ‘सरमन ऑन द माउंटेन’ गांधी और कास्त्रो के बीच रिश्ते की एक डोर हो!