सरहदी तनाव का अंत कहां!

उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार जम्मू कश्मीर के नगरोटा स्थित 16वीं कोर के मुख्यालय के बिल्कुल पास के एक सैन्य रेजिमेंट कैंप पर आतंकी हमले से एक साथ कई सवाल उठे हैं. कोर मुख्यालय के पास होने के चलते इस सैन्य शिविर पर हमला आतंकवादियों द्वारा काफी तैयारी के बाद ही संभव हुआ होगा. यही कारण है […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 2, 2016 6:59 AM

उर्मिलेश

वरिष्ठ पत्रकार

जम्मू कश्मीर के नगरोटा स्थित 16वीं कोर के मुख्यालय के बिल्कुल पास के एक सैन्य रेजिमेंट कैंप पर आतंकी हमले से एक साथ कई सवाल उठे हैं. कोर मुख्यालय के पास होने के चलते इस सैन्य शिविर पर हमला आतंकवादियों द्वारा काफी तैयारी के बाद ही संभव हुआ होगा. यही कारण है कि सामरिक मामलों के कई विशेषज्ञों ने साफ शब्दों में कहा कि हमारी सुरक्षा एजेंसियों की यह बड़ी चूक है. यह भी कहा जा रहा है कि इस तरह के हमलों की आशंका के बारे में सुरक्षा एजेंसियों को पहले से ‘हाइ एलर्ट’ पर रखा गया था.

फिर भी आतंकवादियों को मौका मिल गया और सैन्य शिविर में दो अधिकारियों सहित कुल सात भारतीय सैनिक मारे गये. बीते सितंबर महीने में भारतीय सेना द्वारा नियंत्रण रेखा के पार की गयी ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के बाद अब तक का यह सबसे बड़ा आतंकी हमला है. ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है, क्या ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ अपने मकसद में कामयाब नहीं हुई?

यह अनुमान का विषय नहीं, बिल्कुल साफ है कि इस तरह का आतंकी हमला पाकिस्तानी सेना की शह के बगैर संभव नहीं. इसे संयोग कहें या योजनाबद्ध कि यह हमला भारतीय सेना की सर्जिकल स्ट्राइक के ठीक दो महीने बाद 28-29 तारीख के बीच किया गया. पाक सेना और आतंकियों की साझा रणनीति का एक संकेत इससे भी मिलता है कि हमला तब हुआ, जब पाक सेना में नेतृत्व-परिवर्तन हो रहा था और जनरल राहिल शरीफ की सेवा-निवृत्ति के बाद जनरल कमर जावेद बाजवा कमान संभाल रहे थे. आमतौर पर जैसा पहले भी कई बार हो चुका है, हमले के कसूरवार सारे आतंकी भारतीय सेना के काउंटर-ऑपरेशन में मारे गये. उनकी शिनाख्त नहीं की जा सकी कि वे कश्मीरी मूल के थे या पाकिस्तानी थे!

सामरिक विशेषज्ञों की इस टिप्पणी पर दो राय नहीं हो सकती कि नगरोटा के सुरक्षा-बंदोबस्त में चूक हुई. सवाल उठता है कि पठानकोट और उड़ी के आतंकी हमलों के बाद सुरक्षा एजेंसियों ने सैन्य शिविरों और अन्य सामरिक अड्डों की सुरक्षा के लिए कई नये मानदंड तय किये थे. खासकर पठानकोट हमले के बाद गठित उच्चस्तरीय कमेटी ने शिविरों के त्रि-स्तरीय सुरक्षा बंदोबस्त के अलावा ‘स्टैंडर्ड आॅपरेटिंग प्रोसिजर’(एसओपी) के लिए कुछ नये मानक सुझाये थे

निस्संदेह, सरकार और संबद्ध मंत्रालय के निर्देश पर सुरक्षा एजेंसियों की तरफ से इसकी जांच पड़ताल चल रही होगी कि सुरक्षा-बंदोबस्त में कहां-क्या गड़बड़ी हुई? हमारे रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर 29 सितंबर की ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के कुछ दिन बाद से लगातार इस बात का ऐलान करते आ रहे थे कि भारतीय सेना के पराक्रम से पाकिस्तानी सेना की कमर टूट गयी है. कुछ दिनों पहले सरहद पर जब दोनों तरफ से भारी गोलाबारी हुई और उसमें दोनों तरफ से कई जवानों को जान गंवानी पड़ी, तो पर्रिकर ने फिर फरमाया कि हमने अपने जवानों की शहादत का बदला इस तरह लिया कि सरहद पार कंपकंपी होने लगी. सरहद पर शांति बरकरार रखने के लिए उधर के डीजीएमओ को हमारे डीजीएमओ से संपर्क करना पड़ा. लेकिन असलियत वह नहीं, जिसका हमारे रक्षा मंत्री बीते कई महीनों से लगातार दावा करते आ रहे हैं.

सच यह है कि सरहद पर दोनों तरफ लोग मारे जा रहे हैं. हम अपने शहीदों के लिए झंडा झुका रहे हैं और वे ‘अपने शहीदों’ के लिए! दोनों तरफ मारे जा रहे किसान या साधारण लोगों के जवान बच्चे, जो अपने-अपने मुल्कों की सेनाओं की रीढ़ हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि सरहद पर होनेवाली दैनंदिन गोलाबारी के अलावा पाकिस्तानी सेना भारतीय क्षेत्र में आतंकी हमलों की योजना को शह भी देती है!

यह बात आईने की तरह साफ है कि सरहद पर रोज-रोज के तनाव, गोलाबारी और मार-काट से दोनों में कोई भी शांत होकर नहीं बैठनेवाला है. यानी, हिंसा-प्रतिहिंसा या मारकाट के इस सिलसिले का कोई सैन्य समाधान नहीं है!

सन् 1947 के बाद भारत-पाकिस्तान के बीच अब तक चार ‘युद्ध’ हो चुके हैं. क्या पांचवां युद्ध समाधान पेश करेगा? ऐसा सोचनेवाले वे ही लोग हो सकते हैं, जिन्हें न तो इतिहास की समझदारी है और न ही सामरिक मामलों की साधारण सी जानकारी है! न्यूक्लियर-पावर से लैस दो मुल्कों के बीच युद्ध का मतलब समाधान नहीं, विनाश है. ऐसे में हर मसले का समाधान सिर्फ राजनीतिक पहल से ही संभव है. दोनों मुल्कों के हुक्मरानों को अपनी घरेलू राजनीतिक जरूरतों के हिसाब से भारत-पाक रिश्तों को परिभाषित करने की आदत से बाज आना चाहिए.

संवाद का स्थायी तंत्र बनाना चाहिए. संवाद की प्रक्रिया में वाजपेयी-मुशर्रफ और मनमोहन-मुशर्रफ दौर की औपचारिक-अनौपचारिक वार्ताओं से उभरी सहमतियों, खासकर 4-सूत्री फॉर्मूले को फिर से सहेजना होगा. टूटे संवाद को जोड़ना होगा. रास्ता बहुत कठिन है, पाकिस्तानी सेना का एक हिस्सा और दोनों तरफ के कुछ कट्टरपंथी इस प्रक्रिया में सबसे बड़ी बाधा हैं. पर अंतरराष्ट्रीय दबाव और द्विपक्षीय संवाद के जरिये रास्ता खोजा जा सकता है!

Next Article

Exit mobile version