घोषणापत्र का मुख्य स्वर उसी वक्त तय हो गया था, जब अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने अपने भाषण में कहा कि पाकिस्तान ने हमारे मुल्क के खिलाफ एक ‘अघोषित युद्ध’ छेड़ रखा है. यही टेक भारत का भी है. राष्ट्रपति गनी ने यह सलाह भी दे डाली कि अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण के लिए 50 करोड़ डॉलर देने से बेहतर है कि पाकिस्तान इस राशि का इस्तेमाल अपनी धरती पर मौजूद आतंकियों को खत्म करने में खर्च करे. पांच साल पहले ‘हार्ट ऑफ एशिया’ संवाद-प्रक्रिया की शुरुआत अफगानिस्तान और पड़ोसी देशों के बीच आपसी सहयोग को बढ़ावा देनेवाले मंच के रूप में हुई थी. कई अन्य देश और अंतरराष्ट्रीय समूह भी इस पहल से जुड़े हैं. अफगानिस्तान के राष्ट्रपति के तीखे शब्दों के बाद पाकिस्तान की गति सांप-छछुंदर की थी.
इस मंच पर चौतरफा घिर चुके पाकिस्तान के लिए विकल्प बस दो ही थे. वह या तो सम्मेलन की संवाद-प्रक्रिया के बीच ही अपनी भागीदारी खत्म करके अलग-थलग होने का खतरा उठाता, या फिर पड़ोसी मुल्कों की चिंताओं में शामिल होकर यह मानता कि उसकी धरती पर कायम आतंकी नेटवर्क को खत्म करना उसका प्राथमिक दायित्व है. पाकिस्तान ने दूसरा रास्ता चुना और घोषणापत्र में पहली बार अफगानिस्तान में आतंकी गतिविधियों में सक्रिय हक्कानी नेटवर्क के साथ-साथ जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी रुझानों को बढ़ावा देनेवाले लश्कर-ए-तैयबा तथा जैश-ए-मोहम्मद का नाम भी उन संगठनों में शामिल हुआ, जिनके खात्मे का जिम्मा हार्ट ऑफ एशिया संवाद-प्रक्रिया में शामिल देशों को उठाना है.
पाकिस्तान अब भी अपने को आतंकवाद-पीड़ित राष्ट्र बताने की मजबूरी की ओट ले सकता है, क्योंकि अमृतसर घोषणापत्र में पाकिस्तान के अवाम को निशाना बनानेवाले जंदुल्लाह और तहरीके-तालिबान पाकिस्तान जैसे गिरोहों के नाम भी हैं, पर अब ‘गुड’ और ‘बैड’ टेररिस्ट के नाम पर आतंकियों को शह देते रहने की पाकिस्तान की ओट खत्म हो गयी है.