कद्दावर नेता का जाना

‘सुप्रीमो’- यह शब्द उत्तर भारत की राजनीति में एक खास अर्थ में रूढ़ हो चला है. पार्टी के वजूद और राजनीति के लिहाज से कोई नेता अपरिहार्य हो जायेे, तो उसे रोजमर्रा की सियासी बोलचाल में सुप्रीमो कहा जाता है. द्रविड़ पहचान को धुरी बनाकर चलनेवाली तमिलनाडु की राजनीति में सुप्रीमो के जोर का एक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 7, 2016 2:04 AM

‘सुप्रीमो’- यह शब्द उत्तर भारत की राजनीति में एक खास अर्थ में रूढ़ हो चला है. पार्टी के वजूद और राजनीति के लिहाज से कोई नेता अपरिहार्य हो जायेे, तो उसे रोजमर्रा की सियासी बोलचाल में सुप्रीमो कहा जाता है. द्रविड़ पहचान को धुरी बनाकर चलनेवाली तमिलनाडु की राजनीति में सुप्रीमो के जोर का एक शब्द है ‘थलइवा’. जिसका कहा सभी मानें, जिसके हुक्म का अनादर कोई न कर सके, ऐसे नायक को तमिल भाषा में थलइवा कहा जाता है.

अंगरेजी राज से पहले धर्म और अंग्रेजी राज के खात्मे के बाद सिनेमा की कथाओं के भीतर अपने नायक तलाशने और गढ़नेवाली तमिल राजनीति में अपनी हिमालयी लोकप्रियता और अपरिहार्यता के लिहाज से ‘थलइवा’ कहलाने का हकदार द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम के मुत्थुवेल करुणानिधि भी हो सकते हैं और उनके प्रतिस्पर्धी ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम के संस्थापक मरुधर गोपालन रामचंद्रन भी. लेकिन, तमिल राजनीति के मेलोड्रामाई संसार में थलइवा कहलाने का सौभाग्य हासिल हुआ जयललिता जयरामन को.

तमिल राजनीति में जे जयललिता को पूराची थलाइवी (सुप्रीम लीडर) कहा गया. करुणानिधि ‘कलैगनर’ (कलाकार) कहलाते हैं और यह नाम उनके काम के अनुरूप ही है. आज की तमिल राजनीति के कद्दावर नायक उनकी लिखी पटकथा से निकले हैं. जीवित रहते किंवदंती बन चुके एमजी रामचंद्रन अपने नाम के शुरुआती अक्षरों ‘एमजीआर’ से पुकारे जाते हैं, मानो ये तीन अक्षर नहीं, तमिल राजनीति को तीन डग में नाप लेने के संकल्प के साथ उठे वामन के डग हों. एमजी रामचंद्रन की सिनेमाई छवि ने तमिल राजनीति के साथ बिल्कुल ऐसा ही करिश्मा किया था. वर्ष 1972 में नयी पार्टी बनाने के महज चार साल के भीतर एम करुणानिधि जैसे राजनीति के महारथी के होते वे मुख्यमंत्री के पद पर आसीन हुए. इन दोनों के होते अगर जयललिता पूराची थलाइवी कहला सकीं, तो इसकी बड़ी वजह उनके व्यक्तित्व में खोजी जानी चाहिए.

खुद को संकोची और शर्मीली माननेवाली जयललिता की राजनीति जिद्द से परिभाषित होती है. जिद्द अपने प्रति पूर्ण निष्ठा की मांग करती है. जयललिता के जीवित रहते उनकी पार्टी में सिर्फ निष्ठावानों की जगह थी, ऐसे लोग जो सिर्फ अपने नेता की हां में हां मिलायें, उसके आगे दंडवत रहें. विरोध से निपटने का तरीका भी जयललिता के व्यक्तित्व को परिभाषित करते जिद्द की देन है. पार्टी के भीतर और बाहर अगर कोई विरोधी है, तो मनाने-बहलाने या उलझाने की जगह चुप करा देना कहीं ज्यादा बेहतर है- जयललिता के इस तेवर को उनकी जिद्द के बगैर समझना मुश्किल है. बहुत संभव है जयललिता के व्यक्तित्व में समाया जिद्द उनके निजी जीवन के अनुभवों की उपज हो.

जयललिता के जीवनी-लेखक ने इस बात को नोट किया है कि दो साल की उम्र में पिता की नेहछाया से वंचित जयललिता ने लंबे समय तक मानसिक अभाव का जीवन जिया. फिल्म अभिनेत्री मां घर चलाने की जरूरतों के दबाव में लगातार बेटी से दूर रहीं. पिता के बाद मां के सान्निध्य से वंचित रही बेटी के लिए शरण यही था कि अपने को पढ़ाई में खपा दे. जयललिता ने वही किया और वकील बनना चाहा, लेकिन फिर मां के ही कहने पर महज पंद्रह साल की उम्र में अनचाहे ही फिल्म की दुनिया में प्रवेश किया. जयललिता ने खुद स्वीकार किया है कि उनके जीवन का दो तिहाई हिस्सा दूसरों के अख्तियार में बीता है. एक तिहाई हिस्से पर उनकी मां के हुक्मों का असर रहा, तो दूसरी तिहाई पर दक्षिण भारत की जनता के दिलों पर राज करने वाले एमजी रामचंद्रन की सरपरस्ती का. अचरज नहीं कि अपने जीवन की आखिरी तिहाई जयललिता ने अपने प्रियजन के हाथों खींची व्यक्तित्व को सीमित करती सरपरस्ती की लकीर को तोड़ने में बिताया.

तमिल राजनीति के बीते तीन दशक की कहानी अपने व्यक्तित्व को अपनी मर्जी से गढ़ती जयललिता की कहानी के बगैर अधूरी है. व्यक्तित्व को पाने और गढ़ने की ललक में जयललिता खुद तमिल अवाम की सरपरस्त बन कर उभरीं. वह ‘अम्मा’ कहलायीं. अम्मा होना और कहलाना उनके जिद्द की राजनीति की अनिवार्य मांग भी थी. जीवन के शुरुआती सालों में एमजीआर की छत्रछाया में राजनीति के रंगमंच पर अवतरित होनेवाली जयललिता से बेहतर कौन जानता होगा कि लोकतंत्र में अपरिहार्य नेता बने रहने का सौभाग्य उसे ही हासिल हो सकता है, जो अपने काम से लोगों के दिलों पर राज करे. जयललिता को स्पष्ट था कि पूराची थलाइवी तभी बना रहा जा सकता है, जब लोग आपको अपना संरक्षक समझें. सामाजिक न्याय की धरती तमिलनाडु में राजनीति के भीतर अपरिहार्य बने रहने का एक ही निरापद रास्ता है कि जनता-जनार्दन का जो हिस्सा अपने को सबसे ज्यादा अशक्त महसूस कर रहा है, उसकी रोज की जिंदगी को आसान बनाया जाये. इस मोर्चे पर जयललिता ने जबर्दस्त राजनीतिक सूझ का परिचय दिया. अपने स्त्री होने को अपनी राजनीतिक ताकत में बदला. गहने, कपड़े और ग्राइंडर-मिक्सर ही नहीं, अम्मा कैंटीन, अम्मा वाटर, अम्मा साल्ट और अम्मा फार्मेसी जैसी लोक-लुभावन अनुदान आधारित सुविधाएं प्रदान करके तमिलनाडु की बहुसंख्यक जनता, विशेषकर महिलाओं के दिल में जगह बनायी. आज तमिल राजनीति की ‘पूराची थलाइवी’ नहीं हैं और तमिलनाडु की राजनीति में एक महाशून्य सवाल बन कर गूंज रहा है कि ‘अम्मा के बाद कौन?’

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