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बड़ा लोकतंत्र है, तो दिल भी बड़ा रखिए

।। जावेद इस्लाम ।। प्रभात खबर, रांची 13फरवरी को तेलंगाना के मुद्दे पर संसद में जो कुछ हुआ,उसे तूल देना कतई ठीक नहीं.विश्व के विशालतम,हमारे लोकतंत्र में इस तरह की छोटी-मोटी घटनाएं हो ही जाती हैं.इसे हृदय की विशालता दिखाते हुए ग्रहण करना चाहिए.यह नहीं भूलना चाहिए कि बड़ों का हृदय भी बड़ा होता है. […]

।। जावेद इस्लाम ।।

प्रभात खबर, रांची

13फरवरी को तेलंगाना के मुद्दे पर संसद में जो कुछ हुआ,उसे तूल देना कतई ठीक नहीं.विश्व के विशालतम,हमारे लोकतंत्र में इस तरह की छोटी-मोटी घटनाएं हो ही जाती हैं.इसे हृदय की विशालता दिखाते हुए ग्रहण करना चाहिए.यह नहीं भूलना चाहिए कि बड़ों का हृदय भी बड़ा होता है.

जब हमारा लोकतंत्र, संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, तो हमारा हृदय भी सबसे बड़ा होना चाहिए न! कुछ लोग इसे बढ़ा-चढ़ा कर संसद पर हमला बता रहे हैं, उनके मुंह में खाक. ऐसे नादानों को कौन समझाये कि हमला तो तब होता है, जब कोई बाहरी आदमी करे. जैसे अटल जी के राज में हुआ था. उस हमले के जिम्मेवार अफजल गुरु को देश की सामूहिक चेतना तुष्ट करने के लिए हम फांसी पर चढ़ा चुके हैं.

इस प्रकार का हमला, चाहे बाहरी भवन पर ही न किया गया हो, बिल्कुल बरदाश्त नहीं. संसद पर भीतर से चाहे जितना हमला हो, वह चलेगा. आखिर घर का मामला है! इससे हमारी संप्रभुता का कुछ नहीं बिगड़ता. बल्कि इस प्रकार के माइक-कुरसीतोड़, सिरफोड़, बिलफाड़ संसदीय आचरण से संसदीय परंपरा की नयी जमीन तोड़ी जाती है. 13 फरवरी को भी माननीय सांसदों ने नयी जमीन तोड़ी है.

याद कीजिए, ऐसा पहले भी कई बार हुआ है या नहीं? महिला आरक्षण बिल को लेकर, लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट संसद पटल पर रखे जाने के समय या एससी/एसटी के लिए प्रमोशन में आरक्षण बिल के वक्त? हां, इस बार चाकू (या माइक?) और ‘गैस बम’ का इस्तेमाल हुआ, जो पहले कभी नहीं हुआ था. बस इतने से अंतर के लिए 13 फरवरी को संसदीय इतिहास का काला दिन कह दिया जाना, कहां का न्याय है? 15वीं लोकसभा का यह आखिरी सत्र है.

पता नहीं कितने सांसदों को फिर संसद का मुंह देखने का अवसर मिले या न मिले. इसलिए कई माननीय सांसदों को एक ऐसा मौका तो मिलना ही चाहिए था जो आगामी चुनाव में उनकी जीत के लिए पृष्ठभूमि बनाये.

मौजूदा लोकसभा ने इस बार जो मॉडल पेश किया है, उम्मीद रखिए कि दो-चार महीने बाद जो 16वीं लोकसभा गठित होगी, वह भी इसका अनुसरण करेगी. बल्कि उसे तो दो कदम आगे बढ़ कर अपनी नयी जमीन तोड़नी होगी. नहीं तो उसे याद कौन रखेगा? अब राज्यों की विधानसभाओं को भी इस दिशा में सोचना होगा. उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, महाराष्ट्र सहित कई राज्यों की विधानसभाएं ऐसा संसदीय प्रतिमान तो पहले ही रच चुकी हैं.

अब इनसे आगे दिल्ली की संसद निकल जाये, तो यह राज्यों के लिए अपमान की बात होगी. अपने देश में ‘महाजनो येन गत: स पंथ:’ के सूत्र पर अमल की परंपरा है. मगर कुछ मामलों में उलटा होता है. आजकल देश की संसद में जो हो रहा है, वह विधानसभाओं में पहले से होता आ रहा था. चलिए, हमेशा बड़ों से ही छोटे नहीं सीखते, छोटों से भी बड़े सीख सकते हैं.

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