पुष्पेश पंत
वरिष्ठ स्तंभकार
अमेरिका के नवनिर्वाचित उपराष्ट्रपति जो बाइडेन ने हाल में एक ऐसा बयान दिया है, जिसका यह अर्थ निकाला जा रहा है कि सत्ता ग्रहण करने के बाद डोनाल्ड ट्रंप की नीतियां व्यावहारिक-यथार्थवादी होंगी अौर उन जुझारू जुमलों से संचालित नहीं होंगी, जिनका भरपूर इस्तेमाल उन्होंने अपने चुनाव अभियान के दौरान किया था.
मसलन, जो बाइडेन ने यह भरोसा दिलाने की कोशिश की है कि किसी भी देश में अमेरिका के मित्रों को यह चिंता नहीं करनी चाहिए कि उनकी नौकरियां छीनी जायेंगी. भारत में ‘बीपीअो’ तथा कॉल सेंटरों के अदना कर्मचारी ही नहीं, बड़ी-बड़ी आइटी कंपनियों का भी यह सिरदर्द रहा है कि अमेरिकी नागरिकों को राहत-दिलासा देने के लिए ट्रंप ऐसे कदम उठा सकते हैं, जिन कदमों से उनका धंधा चौपट हो सकता है. अमेरका को फिर से ताकतवर तथा खुशहाल बनाने के लिए जो खाका डोनाल्ड ट्रंप ने पेश किया है, उसमें स्वदेशी उद्यमियों अौर मजदूरों-कारीगरों को ही प्राथमिकता देने की बात अब तक दोहरायी जाती रही है. हमारी राय में बाइडेन किसी नये बदलाव का खुलासा नहीं कर रहे हैं.
अमेरिका की पूंजीवादी व्यवस्था में बड़ी-बड़ी कंपनियां उत्पादन लागत में किफायत अौर मुनाफे में इजाफे के अनुसार ही फैसले करती हैं. कोई भी अमेरिकी प्रशासन इनके दबाव से मुक्त नीतियां न तो बना सकता है अौर न ही उन्हें लागू कर सकता है. याद रहे, इस संदर्भ में डेमोक्रेट बराक अोबामा की घोषणाएं भी अलग नहीं थीं.
भूमंडलीकरण की परियोजना अमेरिका के हित में ही लागू होती रही है अौर इस बारे में दो राय नहीं हो सकती कि ‘बाजार के तर्क’ को खारिज कर अमेरिका की खुशहाली बरकरार रह सकती है. चीन हो या फिर भारत, इनके साथ आर्थिक संबंधों की नजाकत को अमेरिका में कोई भी नजरंदाज नहीं कर सकता. यूरोप आज न सिर्फ खस्ताहाल है, बल्कि बुरी तरह विभाजित भी है. उसी ‘रणक्षेत्र’ में पुतिन की सामरिक चुनौती सबसे विकट है. अमेरिका यह जोखिम नहीं उठा सकता कि अपनी अर्थव्यवस्था को चहारदीवारी से घेर तालाबंद रख सिर्फ अपने बलबूते पर मंदी से छुटकारा पाने का प्रयास करे. हमारी राय में बाइडेन यह गाजर सिर्फ इसलिए झुला रहे हैं कि सैनिक-राजनयिक मोर्चे पर प्रारंभिक चरण में ही कुछ रियायतें हमसे हासिल कर सकें.
जो बाइडेन का दूसरा वक्तव्य भारत के लिए अधिक गंभीर चुनौती पेश करता नजर आ रहा है. उन्होंने अपने बयान में यह जाहिर किया है कि राष्ट्रपति की शपथ लेने के बाद अपने (करिश्माई?) प्रभाव से ट्रंप कश्मीर विवाद के समाधान में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं. भारत का हमेशा से यह मानना रहा है कि कश्मीर विवाद भारत अौर पाकिस्तान के बीच उभयपक्षीय मसला है, जिसमें किसी तीसरे देश या संयुक्त राष्ट्र तक की मध्यस्थता की कोई गुंजाइश नहीं.
दूसरी तरफ पाकिस्तान का सतत प्रयास इसके अंतरराष्ट्रीयकरण का रहा है. इस बार सबसे बड़ा संकट यह है कि मुसलमानों का दुश्मन समझे जानेवाले ट्रंप को हम पाकिस्तान का नैसर्गिक शत्रु अौर भारत का मित्र मानने की घातक भूल करें. कट्टरपंथी इसलामी आतंकवाद के बारे में जो कुछ भी डोनाल्ड ट्रंप कहते रहे हैं, उसका यह नतीजा नहीं निकाला जा सकता है कि पाकिस्तान उनके निशाने पर है या आगे चल कर होगा. ऐसे में डोनाल्ड ट्रंप की एक बार फिर अोबामा या अन्य पूर्ववर्ती अमेरिकी राष्ट्रपतियों से तुलना करना परमावश्यक है.
पिछले सात दशक से अमेरिका ने ही पाकिस्तान को भारत के बराबर वजन का मानते हुए सामरिक तराजू के पलड़े पर तोला है. पाकिस्तान में जनतंत्र की भ्रूणहत्या भी शीत युद्ध के दौर में अमेरिकी सामरिक हितों के साधन के लिए उनके इशारे पर की गयी. पाकिस्तान फौज हो या गुप्तचर संगठन आइएसआइ इनका संरक्षक अमेरिका ही है. उसी ने तालिबान की फसल लहलहायी थी अौर जनरल जिया के राज में पाकिस्तान का कायाकल्प वहाबी कायाकल्प के रूप में संपन्न होने दिया. पाकिस्तान की एटमी तस्करी के प्रति आंखें मूंद कर भी उसने भारत को ही नुकसान पहुंचाया. अतः यह मानना नादानी है कि ट्रंप आते ही इस नीति में आमूलचूल परिवर्तन कर डालेंगे. आज भी अरब जगत, मध्य एशिया अौर ईरान-अफगानिस्तान के संदर्भ में (चीन के भी) पाकिस्तान की संवेदनशीलता भारत से अधिक आंकनेवाले अमेरिकी सामरिक विशेषज्ञों की कमी नहीं है. इसीलिए हमारे लिए सतर्क रहना बहुत जरूरी है.
अमेरिका के साथ हमारे रिश्ते अपने सिर्फ प्रधानमंत्री अौर उस देश के किसी भी राष्ट्रपति के व्यक्तिगत दोस्ताना संबंधों के भरोसे नहीं छोड़े जा सकते. संबंधों का निर्वाह शुद्ध लाभ और लागत के आधार पर किया जाना चाहिए. परमाण्विक क्लब की मानद सदस्यता हो या सुरक्षा परिषद् की इनकी मरीचिका इनसे बचे बिना कल्याण नहीं है. डोनाल्ड ट्रंप ने अभी पदभार नहीं संभाला है. इसलिए उतावली गैरजरूरी है.