राजनीति की पटकथा में सिनेमा

चंदन श्रीवास्तव एसोसिएट फेलो, कॉमनकॉज ‘वर्णानामर्थ संघानां रसानां छंदसामपि…’ रामचरितमानस की शुरुआत इस प्रसिद्ध श्लोक से होती है. क्या मानस की शुरुआती पंक्ति के तौर पर इस श्लोक से पहले भी कुछ लिखा जा सकता है? ना, ऐसा सोचना बुद्धि की फिजूलखर्ची ही कहलायेगा. जब कथा-लेखक ने स्वयं ही पाठ-रचना की शुरुआत के लिए एक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 14, 2016 8:20 AM

चंदन श्रीवास्तव

एसोसिएट फेलो, कॉमनकॉज

‘वर्णानामर्थ संघानां रसानां छंदसामपि…’ रामचरितमानस की शुरुआत इस प्रसिद्ध श्लोक से होती है. क्या मानस की शुरुआती पंक्ति के तौर पर इस श्लोक से पहले भी कुछ लिखा जा सकता है? ना, ऐसा सोचना बुद्धि की फिजूलखर्ची ही कहलायेगा. जब कथा-लेखक ने स्वयं ही पाठ-रचना की शुरुआत के लिए एक खास पंक्ति रची है, तो इस शुरुआत को बदलना पूरे रचनाधर्म की अवहेलना कहलायेगा.

साहित्य के किसी ग्रंथ की शुरुआती पंक्ति को बदलना अगर रचनाधर्म की अवहेलना और ठीक इसी कारण अचिंत्य है, तो फिर किसी फिल्म के शुरुआत को बदलने का प्रयास चाहे वह तनिक दूरी बना कर ही हो, क्योंकर उचित है? सिनेमाघर में फिल्म की स्क्रीनिंग से पहले राष्ट्रगान बजाने के सुप्रीमकोर्ट के आदेश के बाद यह सवाल साहित्य और सिनेमा के रसिकों के दिल में जरूर उठेगा. सिनेमा देखना किसी सिने-प्रेमी के लिए उतना ही सघन अनुभव हो सकता है, जितना कि किसी ‘मानस-प्रेमी’ के लिए बालकांड का पाठ. बालकांड के शुरुआती श्लोक के पाठ के तुरंत पहले अगर कुछ और, जैसे दुर्गास्तुति, पढ़ने की बाध्यता हो, तो यह कथा-लेखक के कोण से पाठभंग और पाठक के कोण से कथा-रस के भंग होने की स्थिति कहलायेगी. ठीक यही बात फिल्म की स्क्रीनिंग से पहले राष्ट्रगान बजाने की अनिवार्यता पर लागू होती है.

जैसे कोई भी कला-रचना अपनी एकलता में समग्र होती है और इस समग्रता को साधने की अपनी कोशिश के हवाले से ही सफल या असफल करार दी जाती है, वैसे ही सिनेमा भी.

सिनेकथा अपनी समग्रता में पूरे प्रभाव के साथ प्रदर्शित हो, इसके लिए सिनेकार एक वांछित परिवेश की कल्पना करते हैं. सिनेमा हॉल का घुप्प अंधेरा, ऐसा सन्नाटा कि दूसरे की सांस तक सुनायी दे, विशेष ध्वनि-प्रभाव के लिए सिनेमा हॉल में खास उपकरणों का इंतजाम या फिर किसी-किसी फिल्म के लिए विशेष चश्मे या सिनेपर्दे की जरूरत ऐसे ही परिवेश-निर्माण के उदाहरण हैं. फिल्म के प्रदर्शन से ऐन पहले राष्ट्रगान बजना दरअसल एक ऐसे परिवेश का पैदा होना है, जिसकी कल्पना सिनेकार ने पहले से नहीं की थी. यह सवाल भी उठेगा कि क्या राष्ट्रगान किसी भी फिल्म का अनिवार्य हिस्सा है, ऐसा हिस्सा जिस पर फिल्मकार यानी कथा के रचयिता का कोई वश नहीं!

सिने-दर्शक बन कर सोचें, तो एक अवांछित स्थिति बनती है. फिल्म के प्रदर्शन से पहले राष्ट्रगान में शामिल होने की अनिवार्यता दरअसल ऐसा ही है, मानो किसी ने आपके दर्शक होने की योग्यता का नये सिरे से निर्धारण किया हो. सिने-दर्शक होने की योग्यता क्या है? आपके पास सिनेमा का टिकट खरीद सकने लायक रकम होनी चाहिए और वह तमीज भी कि आपका सिनेमा देखना दूसरे के सिनेमा देखने के अनुभव में बाधा ना बने.

फिल्म की स्क्रीनिंग के तुरंत पहले सिनेमाघर में राष्ट्रगान का बजना अनिवार्य कर देने से यह स्थिति बहुत कुछ बदल गयी है. टिकट खरीद कर फिल्म देखने की पूरी तमीज के साथ आप सिनेमाघर में दाखिल होते हैं, लेकिन मात्र इतने भर से आप सिनेमा देखने के अधिकारी नहीं हो जाते. जब तक आप राष्ट्रगान में विधिवत शामिल नहीं होते, आपके सिने-दर्शक होने की योग्यता स्थगित रहती है.

सिने-दर्शक की योग्यता के निर्धारण के लिए ऐसी कोई भी कसौटी बनाना, जिसका संबंध सिनेकथा की आस्वाद, समझ और सराहना से ना हो, बड़ी मुश्किल खड़े कर सकता है. राष्ट्रगान बजाने की अनिवार्यता के अदालती आदेश के बाद कोई इस फैसले पर भी पहुंच सकता है कि राष्ट्रप्रेमी होकर ही सिनेमाप्रेमी हुआ जा सकता है. सिनेमाघर में बजते राष्ट्रगान में विधिवत शामिल ना होने पर क्या सजा होगी, इसको लेकर अदालती फैसला स्पष्ट नहीं है. फिर भी फैसले के बाद किसी के सिनेमा-प्रेम को ओछा ठहराने और लगे हाथों दंडित करने की ओट अपने को औरों की तुलना में कहीं ज्यादा राष्ट्रप्रेमी समझनेवाले समूहों को मिल गयी है.

बीते रविवार चेन्नई के एक सिनेमाघर में यही हुआ. दर्शकों का एक समूह राष्ट्रगान के वक्त खड़ा नहीं हुआ, तो दूसरे समूह ने उसकी पिटाई की.

सिनेमा राष्ट्रप्रेम का वाहक बने और उन्हीं अर्थों में बने, जिन अर्थों में शासन ने राष्ट्रप्रेम को परिभाषित किया है, सिनेमा से हमारे रिश्ते पर इस सोच की छाया रही है. इसी सोच से 1962 से सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजना शुरू हुआ. तब का माहौल (चीनी आक्रमण) और था. भावना के धरातल पर राष्ट्र को अखंड रखने की मंशा से 1961 में बनी एक परिषद् की जनसंचार केंद्रित समिति (अध्यक्ष पृथ्वीराज कपूर) की एक सिफारिश थी कि स्कूलों में रोज राष्ट्रगान गवाया जाये, सिनेमाघरों में भी बजे. फिल्म स्क्रीनिंग से पहले सिनेमाघर में राष्ट्रगान बजाने का हाल का अदालती फैसला साहित्य या सिनेमा को राजनीति का टहलुआ माननेवाली हमारी इसी राजनीतिक संस्कृति की उपज है. जरूरत इस संस्कृति को टोकने की है.

Next Article

Exit mobile version