प्रभात रंजन
कथाकार
दिसंबर का महीना आते ही मन में जमी हुई स्मृतियां जैसे पिघलने लगती हैं. मुझे बचपन के दिन याद आ जाते हैं. जब हम सब बच्चे सर्दियों की छुट्टियां होते ही अपने गांव जाते थे. सर्दियों की छुट्टियां बहुत ‘इवेंटफुल हुआ करती थीं हमारे लिए. खेतों में जाकर गन्ने खाना या दरवाजे पर गुड़ को बनते देखना. खेतों से मटर की छीमियां खाना. दिनभर गुनगुनी धूप में खेतों में घूमना. तब गर्मी की तरह लू लगने का कोई डर नहीं होता था.
लेकिन, दिसंबर का सबसे अधिक इंतजार खाने-पीने के अलावा रात में दरवाजे पर लगनेवाले घूरे का ढेर होता था. शाम को बहुत ऊंचा अलाव लगाया जाता था और अंधेरा होते ही उसमें आग लगा दी जाती थी. उसके पास दादा जी की कुर्सी अलग से लगायी जाती थी.
बाकी सभी लोग जमीन पर बैठते थे. दादाजी इसलिए कुर्सी पर बैठते थे, क्योंकि उनका पैर टूट गया था, जिसकी वजह से वे जमीन पर बैठ नहीं पाते थे. धीरे धीरे गांव के लोग अलाव के आसपास जुट जाते थे. हम बच्चों को दर्शक की भूमिका दी जाती थी. उसके बाद किस्सों का दौर शुरू होता था. हम खाना-पीना भूल कर किस्सों में खोये रहते थे.
मेरे बचपन में किस्सों से मेरा पहला परिचय दिसंबर की छुट्टियों में अलाव के पास बैठने से ही हुआ. किस्सों की ऐसी महफिल किसी और मौसम में नहीं जमती थी. कुछ दिन पहले महान फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार की आत्मकथा आयी, तो उसमें पढ़ा कि पेशावर में उनका पुश्तैनी घर जिस इलाके में था, उसका नाम ‘किस्साख्वानी’ बाजार था. शाम के समय बाजार में चौराहे पर लोग बारी-बारी से किस्से सुनाते थे.
दादाजी किस्सों के उस्ताद थे. वे कभी काल्पनिक किस्से नहीं सुनाते थे. हमेशा अपने जीवन से जुड़े प्रसंग सुनाते थे. एक-से-एक हैरतंगेज किस्से कि किस तरह वे भरी बाढ़ में तैरते हुए तीन गांव दूर चले गये थे, किस तरह वे एक बार पेड़ से लिपट गये थे और बीसों लोग मिल कर भी उनको वहां से नहीं हटा पाये थे.
एक और दादाजी थे- रायबहादुर. वे अपने शानो-शौकत के लिए जाने जाते थे. जवानी के दिनों में उनके सबसे अच्छे दोस्त को अंगरेजों ने रायबहादुर का खिताब दे दिया, लेकिन उनके घर राष्ट्रवादियों का आना-जाना था, इसलिए उनको वह खिताब नहीं मिल पाया. वे बहुत दुखी हुए. उनके दुख को दूर करने के लिए गांववालों ने उनको रायबहादुर कहना शुरू कर दिया. उनका जीवन बहुत विविधतापूर्ण था.
वे हमें अंगरेजों के जमाने के किस्से सुनाते थे, जब वे साहब बहादुरों की सोहबत में उठते-बैठते थे. गांव के और बड़े बुजर्ग भी आकर बैठते थे. सब अपने शानदार अतीत के किस्से सुनाते थे. सबके वर्तमान में झोल था. लेकिन, सबका अतीत गौरवशाली था. तब सच-झूठ की इतनी समझ नहीं थी, इसलिए लगता था कि वे लोग सब सच बताते थे. हम आंखें फाड़े किस्से सुनते थे. बाद में बड़े होने पर समझ आया कि सब किस्से होते थे. सच नहीं.
बाद में जब कहानियां लिखना शुरू किया, तो मुझे घूरे के अलाव के पास बैठ कर सुने गये किस्से याद आते रहे. मैंने उन किस्सों से यह सीखा कि कहानियां ऐसी लिखनी चाहिए, जिससे पढ़नेवाले का ध्यान एक पल के लिए भी उससे न हटे.
आज मुझे याद आता है कि उन किस्सों के माध्यम से मैंने अपने समाज की न जाने कितनी परतों का ज्ञान पाया था. जीवन में सब साथ-साथ चल रहा है. दिसंबर की छुट्टियों का मौसम आया, तो यह सब याद आ गया. हालांकि, मैं जानता हूं कि अब न वे दिसंबर आयेंगे न किस्सों के वे प्यारे मौसम.