स्वास्थ्य का संकट

क्या एक देश के रूप में हम निकट भविष्य में हर नागरिक को स्वास्थ्य-सेवा का ऐसा परिवेश दे सकेंगे कि वह अपनी क्षमताओं के विकास में कोई बाधा न महसूस कर सके? सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों (एमडीजी) के अंतर्गत सार्विक स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने की समय-सीमा 2015 में खत्म हो गयी थी, जिसे अब बढ़ा कर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 15, 2016 1:39 AM
क्या एक देश के रूप में हम निकट भविष्य में हर नागरिक को स्वास्थ्य-सेवा का ऐसा परिवेश दे सकेंगे कि वह अपनी क्षमताओं के विकास में कोई बाधा न महसूस कर सके? सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों (एमडीजी) के अंतर्गत सार्विक स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराने की समय-सीमा 2015 में खत्म हो गयी थी, जिसे अब बढ़ा कर 2030 कर दिया गया है. भारत सहित 194 देशों के बीच हुई सहमति के मुताबिक, इस अवधि के भीतर हर देश को टिकाऊ विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के अंतर्गत अपने हर नागरिक को भेदभाव से मुक्त स्वास्थ्य-सेवा प्रदान करना है.
देश की खस्ताहाल स्वास्थ्य-प्रणाली को देखते हुए आशंका यही है कि सस्ती और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य-सेवा तक सबकी पहुंच बनाने के लक्ष्य से भारत बाकी देशों की तुलना में पीछे रह जायेगा. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने इस मामले में भारत में हुई प्रगति का जायजा लेते हुए इस तरफ आगाह किया है. गर्भवती स्त्री, नवजात शिशु और बाल-स्वास्थ्य के रक्षण के मामले में भारत बहुत पीछे है. देश में हर 12 मिनट पर एक गर्भवती स्त्री पर्याप्त चिकित्सीय देखभाल के अभाव में काल-कवलित होती है.
हर दो मिनट पर उपचार के अभाव में निमोनिया तथा डायरिया जैसी बीमारियों से पांच साल से कम उम्र का एक बच्चा अपनी जान गंवा रहा है. लगभग 40 फीसदी लोग ही साफ-सफाई की बेहतर सुविधाओं का इस्तेमाल कर पा रहे हैं. यह तथ्य संक्रामक बीमारियों जैसे डेंगू, चिकनगुनिया आदि से बचाव के इंतजामों के अभाव की ओर संकेत करता है.
गैर-संक्रामक बीमारियां जैसे मधुमेह, उच्च रक्तचाप या हृदय-रोग के मामलों में तेज इजाफा हुआ है, लेकिन सरकारी क्षेत्र में जांच और उपचार की सुविधाओं में समुचित बढ़ोतरी नहीं हुई है. नेशनल हेल्थ प्रोफाइल (2015) के तथ्य बताते हैं कि एलोपैथिक डाॅक्टरों की संख्या में तेज बढ़त के बावजूद देश में 2014 में पंजीकृत चिकित्सकों की संख्या 9.4 लाख ही थी, यानी 11,528 लोगों पर उपचार के लिए बस एक पंजीकृत एलोपैथिक चिकित्सक उपलब्ध है.
कुछ राज्यों, जैसे छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और बिहार, में यह अनुपात और भी कम है. बुनियादी ढांचे की बदहाली का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि औसतन 1,833 मरीजों के लिए सरकारी अस्पतालों में बस एक बिस्तर मौजूद है और हर रेफरल सरकारी अस्पताल पर औसतन 61 हजार लोगों की चिकित्सा का भार है. सरकार सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का केवल 1.2 फीसदी चिकित्सा पर खर्च करती है, जो बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे देशों से भी कम है. उम्मीद है कि इस गंभीर समस्या के समाधान के लिए सरकारी प्राथमिकता बदलेगी और कुछ ठोस उपाय किये जायेंगे.

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