पार्टनर, आपकी पॉलिटिक्स क्या है!
।। उर्मिलेश।। (वरिष्ठ पत्रकार) ‘पार्टनर, आपकी पॉलिटिक्स क्या है?’ किसी अन्य प्रसंग में कई दशक पहले गजानन माधव मुक्तिबोध द्वारा पूछा यह सवाल आज आम आदमी पार्टी के संदर्भ में प्रासंगिक लग रहा है. महज एक साल के अंदर कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ती पार्टी ने दिल्ली में 49 दिनों तक राज्य सरकार का राजकाज भी […]
।। उर्मिलेश।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
‘पार्टनर, आपकी पॉलिटिक्स क्या है?’ किसी अन्य प्रसंग में कई दशक पहले गजानन माधव मुक्तिबोध द्वारा पूछा यह सवाल आज आम आदमी पार्टी के संदर्भ में प्रासंगिक लग रहा है. महज एक साल के अंदर कामयाबी की सीढ़ियां चढ़ती पार्टी ने दिल्ली में 49 दिनों तक राज्य सरकार का राजकाज भी संभाला. सरकार बनाने और फिर स्वयं ही सत्ता से हटने के उसके फैसले रहस्य, रोमांच और अटकलों से भरे रहे. पार्टी अब आम चुनाव के लिए ताल ठोंक रही है. इसने अपने कई उम्मीदवारों की घोषणा भी कर दी है. इनमें आम आदमी-आम कार्यकर्ता कम, ज्यादातर अलग-अलग क्षेत्रों के ‘तारे-सितारे’ हैं. चुनावी तैयारी के बीच पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने देश के बड़े उद्योगपतियों के संगठन ‘सीआइआइ’ के अधिवेशन में राजनीति और अर्थव्यवस्था संबंधी अपने चिंतन को सार्वजनिक किया. 17 फरवरी के इस खुलासे के बाद साफ हो गया है कि ‘आप’ में भले ही तरह-तरह के नेता-कार्यकर्ता दिखाई देते हों, पर बुनियादी तौर पर यह पूंजीवाद-परस्त एक ऐसी पार्टी है, जिसे मौजूदा व्यवस्था में कोई खामी नजर नहीं आती. उसकी नजर में खामी सिर्फ गवर्नेस में है, जिसे कुछ मामूली सुधारों के जरिये दुरुस्त किया जा सकता है!
अपने इस चिंतन की रोशनी में ‘आप’ मौजूदा व्यवस्था में कोई बुनियादी समस्या नहीं देखती. इसलिए वह इसमें गुणात्मक या बुनियादी बदलाव की पक्षधर नहीं है. प्रतिद्वंद्वी पार्टियों से इसका अंतर सिर्फ इतना है कि इसके नेता फिलहाल राजकाज (गवर्नेस) में कुछ जरूरी सुधार चाहते हैं. सबसे बड़ा मुद्दा है- भ्रष्टाचार खत्म करना. यह महज संयोग नहीं कि पार्टी ने आम चुनाव के लिए अपने जिन खास ‘तारों-सितारों’ को मैदान में उतारा (16 फरवरी को), उनमें कुछ उद्योग-व्यापार और कॉरपोरेट क्षेत्र से हैं, तो कुछ नौवें दशक के आरक्षण-विरोधी आंदोलन की पैदाइश हैं. इनमें ज्यादातर कड़े आर्थिक सुधारों और नवउदारवादी नीतियों के उसी तरह पक्षधर हैं, जैसे कांग्रेस में चिदंबरम और भाजपा में नरेंद्र मोदी हैं. ‘समाजवादी’ प्रो योगेंद्र यादव अपवाद कहे जा सकते हैं, जो नवउदारवादी नीतियों के हाल तक आलोचक रहे हैं. पर यह सभी तरह के ‘राजनीतिक प्राणी’ फिलहाल पार्टी स्तर पर केजरीवाल के नेतृत्व के साये में साथ-साथ चलने को राजी नजर आते हैं.
कन्फेडरेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्रीज (सीआइआइ) के अधिवेशन में केजरीवाल के ऐलान के बाद यह सवाल प्रासंगिक हो गये हैं. सीआइआइ में उन्होंने जो बातें कहीं, वह इस पार्टी की राजनीति को समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं. इससे बिल्कुल साफ हो जाता है कि भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी और केजरीवाल की अर्थनीति संबंधी सोच में कोई मौलिक अंतर नहीं हैं. केजरीवाल ने साफ शब्दों में कहा, ‘सरकार का काम व्यापार करना नहीं. सरकार को सिर्फ राजकाज (गवर्नेस) तक अपने को सीमित रखना चाहिए. वह सिर्फ चीजों की निगरानी करे.’ यही बात तो मोदी भी कहते आ रहे हैं. उनका कहना है कि गुजरात के विकास का मॉडल इसी सोच पर आधारित है. केजरीवाल कह रहे हैं कि ‘आप’ पूंजीवाद के खिलाफ नहीं है, सिर्फ ‘क्रोनी पूंजीवाद’ के खिलाफ है. पिछले 20-22 सालों से कांग्रेस और भाजपा के तमाम बड़े नेता भी इसी तरह की बातें कहते रहे हैं. कांग्रेस में ‘कड़े आर्थिक सुधारों’ के कट्टर-समर्थक नेताओं ने भी इसी आर्थिक-राजनीतिक दर्शन को आगे बढ़ाया. यदा-कदा इसके विरोध में पार्टी में कुछ आवाजें भी उभरती रहीं. दिवंगत अजरुन सिंह, दिवंगत चंद्रजीत यादव, मणिशंकर अय्यर और जयपाल रेड्डी सरीखों ने आर्थिक सुधारों के मानवीय चेहरे की वकालत की. पर वे हाशिये पर रहे. नतीजा भी सामने है. बड़ी पूंजी और बहुराष्ट्रीय निगमों की तरफ झुकी आर्थिक नीतियों के चलते ही आज देश में कांग्रेस का इतना बुरा हाल हुआ है. केजरीवाल आज जो कुछ कह रहे हैं, उसका मतलब साफ है कि वे आर्थिक सुधारों के दौर की नवउदारवादी नीतियों के साथ हैं, सिर्फ उन्हें ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ से परहेज हैं. लेकिन तीसरी दुनिया, खास कर विकासशील देशों में जहां कहीं नवउदारवादी नीतियां लागू की गयीं, क्रोनी पूंजीवाद का कुटिल चेहरा लगभग हर जगह उभर कर सामने आया है. ऐसे में केजरीवाल का परहेज अस्थायी और दिखावटी ज्यादा लगता है. उनके पास स्थानीय स्तर पर दिखावे की प्राथमिकी दर्ज कराने के अलावा ‘क्रोनी-कैपिटलिज्म’ से निपटने का ठोस रास्ता क्या है?
‘आप’ को लेकर अब एक बड़ा सवाल है. केजरीवाल ने पार्टी की अर्थनीति पर अपने संबोधन के बाद एक अंगरेजी अखबार को दिये इंटरव्यू में यह भी कहा कि आम चुनाव के मद्देनजर उनकी पार्टी जल्द ही अपनी इन नीतियों को लोगों के समक्ष लायेगी. इस ऐलान के बाद समाजवादी खेमे से ‘आप’ में शामिल हुए प्रो योगेंद्र यादव और प्रो आनंद कुमार या वाम-रुझान वाले अधिवक्ता प्रशांत भूषण सरीखों को देश के समक्ष अपनी स्थिति जरूर साफ करनी चाहिए, कि भारतीय अर्थव्यवस्था की भावी दिशा को लेकर अब उनका चिंतन क्या है? और अंतत: उनकी पॉलिटिक्स क्या है? आप उम्मीदवारों से भी पूछा जाना चाहिए कि संसद के लिए चुने जाने पर वह किस तरह की नीतियों के निर्धारण की वकालत करेंगे? नवउदारवादी नीतियों के दबाव में जिस तरह आज श्रम कानूनों से लेकर नवउदारवादी योजनाकारों के चौतरफा दबावों के बावजूद स्वास्थ्य, शिक्षा और परिवहन सहित अनेक क्षेत्रों में अब भी राज्य एक स्तर पर अपनी भूमिका निभा रहा है. ऐसे में ‘आप’ के रंग-बिरंगे नेता निर्वाचित होने पर संसद में क्या भूमिका निभाएंगे?
योगेंद्र, प्रशांत व आनंद जैसे लोग हाल तक विश्व व्यापार संगठन, आइएमएफ और बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दुरभिसंधि के खिलाफ विकासशील देशों और अविकसित समाजों की आवाज उठाते रहे हैं. तो क्या विख्यात समाजवादी चिंतक दिवंगत किशन पटनायक को अपना राजनीतिक गुरु माननेवाले प्रो योगेंद्र यादव ने अर्थनीति के मामले में अब केजरीवाल को ‘गुरु’ मान लिया है? क्या प्रो आनंद कुमार ने लोहिया-जेपी के समाजवाद को पूरी तरह भुला दिया है या वे तमाम सामाजिक व नैतिक मूल्य अब बेमतलब हो गये हैं, जिनकी वह वकालत करते रहे हैं? प्रशांत भूषण क्या ‘केजरीवाद’ से बौद्धिक तौर पर इस कदर आक्रांत हैं कि अपने ही लिखे-कहे शब्दों को उन्होंने अपनी समझ के कंप्यूटर से ‘डिलीट’ कर दिया है? ‘आप’ में ये तीन नेता समझ और सोच के स्तर पर सबसे प्रखर और अनुभवी माने जाते हैं, इसलिए समय और समाज इनसे जरूर सवाल करेगा. इन्हें कभी न कभी जवाब तो देना ही होगा.