जस्टिस खेहर की चुनौती

साल बदलने को है और नये साले के पहले हफ्ते में सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश भी. प्रधान न्यायाधीश का पद संभालने के लिए नामित न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर के सामने मौजूद मुख्य चुनौती की झलक वर्तमान प्रधान न्यायाधीश टीएस ठाकुर के अप्रैल महीने की भावुक अभिव्यक्ति में देखी जा सकती है. तब मुख्यमंत्रियों और […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 20, 2016 11:53 PM
साल बदलने को है और नये साले के पहले हफ्ते में सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश भी. प्रधान न्यायाधीश का पद संभालने के लिए नामित न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर के सामने मौजूद मुख्य चुनौती की झलक वर्तमान प्रधान न्यायाधीश टीएस ठाकुर के अप्रैल महीने की भावुक अभिव्यक्ति में देखी जा सकती है.
तब मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों की बैठक में जजों की संख्या बढ़ाने की तत्काल जरूरत के बारे में उन्होंने कहा था कि यह सिर्फ ‘बेचारे याचिकाकर्ता और जेलों में पड़े लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि इस देश के विकास और प्रगति के लिए भी बहुत जरूरी है, क्योंकि न्यायपालिका की क्षमता और देश के विकास के बीच गहरा नाता है. कुछ दिन पहले बेंगलुरु के एक समारोह में भी उन्होंने लंबित मुकदमों के निपटारे में होती देरी की तरफ यह कहते हुए इशारा किया कि जजों के नये पदों की मंजूरी और उच्च न्यायालयों में खाली पदों पर नियुक्ति में विलंब के कारण न्यायपालिका अपने संवैधानिक दायित्वों को निभाने में पंगु साबित हो रही है.
न्याय में देरी की समस्या कितनी विकराल है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश के न्यायालयों में तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमे लंबित पड़े हैं. ऐसे 10 फीसदी मामले 10 सालों से अधिक तथा 18 फीसदी मामले पांच साल से अधिक समय से चल रहे हैं. न्यायाधीश ठाकुर ने अप्रैल में कहा था कि अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय हर साल 81 मामलों पर फैसले देती है, जबकि भारत में एक जज औसतन 2600 मामलों पर फैसले देता है, भले वह जिला अदालत का मुंसिफ हो या फिर देश की सबसे बड़ी अदालत का जज. भारत में 73 हजार लोगों पर एक जज है, जो अमेरिका की तुलना में सात गुना कम है.
नये आंकड़ों के मुताबिक, देश में फिलहाल प्रत्येक जज को औसतन 1,350 मुकदमे निपटाने हैं और प्रति माह 43 मामले निपटाये जा रहे हैं. मुकदमों के निपटारे की मौजूदा दर के हिसाब से जिला अदालतों में लंबित फौजदारी के मामलों के निपटान में 30 साल से ज्यादा का समय लगेगा और दीवानी मुकदमों को शायद आनेवाले सौ सालों में भी निपटा पाना संभव न हो. उच्च न्यायालयों में 45 लाख मामले लंबित हैं और 40 फीसदी से अधिक न्यायिक पद खाली है. सर्वोच्च न्यायालय में भी 60 हजार से अधिक मामलों की सुनवाई चल रही है.
न्याय में देरी के साथ भ्रष्टाचार और वंचितों को समुचित न्यायिक सहायता न मिल पाने जैसी समस्याएं भी बड़ी हैं. उम्मीद है कि न्यायाधीश खेहर के नेतृत्व में इन परेशानियों का हल तलाशने की कोशिशें तेज होंगी तथा न्यायपालिका की स्वायतत्ता एवं कार्यक्षमता में देश का भरोसा और मजबूत होगा.

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