पार्टियों का हिसाब

अपने विधान से बंधना तो विधाता को भी पड़ता है. लेकिन, हमारे राजनीतिक दल इसके अपवाद हैं, अन्यथा पारदर्शिता के नियमों और सूचना के अधिकार जैसी व्यवस्थाओं से उन्हें परहेज क्यों रहता! अचरज नहीं कि नोटबंदी के जरिये कालेधन पर अंकुश लगा कर भ्रष्टाचार के खात्मे की बात हो रही है, तो कायदे से खुद […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 22, 2016 6:28 AM
अपने विधान से बंधना तो विधाता को भी पड़ता है. लेकिन, हमारे राजनीतिक दल इसके अपवाद हैं, अन्यथा पारदर्शिता के नियमों और सूचना के अधिकार जैसी व्यवस्थाओं से उन्हें परहेज क्यों रहता! अचरज नहीं कि नोटबंदी के जरिये कालेधन पर अंकुश लगा कर भ्रष्टाचार के खात्मे की बात हो रही है, तो कायदे से खुद को ऊपर रखने के कारनामे में अव्वल ये पार्टियां ही दिख रही हैं.
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सरकार नागरिकों से उनके जमा-खर्च के पाई-पाई का हिसाब पूछ सकती है, लेकिन नागरिक चाहे भी तो पार्टियों की कमाई की गुप्त-गंगोत्री का कोई इतिहास-भूगोल नहीं जान सकता है. ऐसे में लोगों के मन में पार्टियों के भ्रष्टाचार को रोकने के वादों और दावों पर भरोसा कैसे बनेगा? चुनाव आयोग के मुखिया ने भी चिंता जाहिर की है कि ऐसे ही चलता रहा, तो चुनावी प्रक्रिया से लोगों का विश्वास खत्म हो जायेगा. आयोग ने हाल ही में 200 कागजी पार्टियों की एक सूची बनायी है, जो चुनाव नहीं लड़तीं, मगर चंदा बटोरती हैं और आयकर पर छूट हासिल करती हैं. आयोग ऐसी पार्टियों की आमदनी का लेखा जानने के लिए आयकर विभाग को चिट्ठी लिखने का मन बना चुका है. आयोग को आशंका है कि ऐसी पार्टियां कालेधन को सफेद करने का एक जरिया हैं. इस आशंका से चुनाव लड़ने और जीतनेवाली पार्टियां भी परे नहीं हो सकती हैं.
नियम की ढाल लेकर राजनीतिक दल इनकार की तलवार भांजते हैं कि 20 हजार रुपये तक के चुनावी चंदे के स्रोत का खुलासा हम क्यों करें! दलों की बढ़ती कमाई को देख कर यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि कहीं नियमों के तिनके टांग कर काली कमाई का ऊंट तो नहीं छिपाया जा रहा है. खबर है कि राष्ट्रीय दलों को बीते वित्त वर्ष में 102 करोड़ रुपये का चंदा 20 हजार से ऊपर वाली श्रेणी में हासिल हुआ.
क्या वजह है, जो दल अपनी कमाई के अधिकांश के बारे में बताते हैं कि वह 20 हजार या इससे कम की नकदी में हासिल हुआ है? एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की रिपोर्ट के मुताबिक, 2004 से 2015 के बीच हुए 71 विधानसभा चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों ने 3368.06 करोड़ रुपये जमा किये, जिसनें नकदी में मिला चंदा 63 फीसदी था.
नियमों की आड़ लेकर इस नकदी को दलों ने अपने गुमनामी खाते में रखा. चूंकि कंपनियों से राजनीतिक दलों को सबसे ज्यादा चंदा हासिल होता है, सो चुनाव आयोग का यह सुझाव सराहनीय है कि राजनीतिक दलों के लिए दो हजार से ऊपर के चंदे का स्रोत बताना जरूरी बना दिया जाये. कितना अच्छा होता, अगर ऐसी पहलें पार्टियां खुद ही करतीं!

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