तेलंगाना पर राजनीति और सदन की मर्यादा
कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने अपने कार्यकाल के अंतिम संसदीय सत्र के अंतिम सप्ताह में जिस तरीके से लोकसभा में तेलंगाना विधेयक पारित किया है, उसे किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता है. बिना किसी बहस के हंगामे के बीच डेढ़ घंटे के भीतर लोकसभा अध्यक्ष ने ध्वनि मत से विधेयक के पारित […]
कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने अपने कार्यकाल के अंतिम संसदीय सत्र के अंतिम सप्ताह में जिस तरीके से लोकसभा में तेलंगाना विधेयक पारित किया है, उसे किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता है. बिना किसी बहस के हंगामे के बीच डेढ़ घंटे के भीतर लोकसभा अध्यक्ष ने ध्वनि मत से विधेयक के पारित होने का निर्णय सुना दिया.
इतना ही नहीं, इस पूरी कार्यवाही का टेलीविजन-प्रसारण भी रोक दिया गया. इससे पहले तेलंगाना विधेयक का विरोध कर रहे सांसदों को निलंबित कर दिया गया था. कांग्रेस और मुख्य विपक्षी दल भाजपा की युगलबंदी और लोकसभाध्यक्ष के रवैये के विरुद्ध पहले जद (यू) और बाद में द्रमुक तथा तृणमूल कांग्रेस के सदस्यों ने कार्यवाही का बहिष्कार किया. निश्चित रूप से संघीय ढांचे के विकेंद्रीकरण के लिए राज्यों के उचित पुनर्गठन की आवश्यकता है, लेकिन यह सभी पक्षों की जिम्मेदारी बनती है कि इस प्रक्रिया में संवैधानिक और सार्वजनिक मर्यादाओं का पालन हो.
सरकारें, संस्थाएं और पार्टियां बहस और विरोध को जगह देने के राजनीतिक संस्कारों की अवहेलना नहीं कर सकतीं. तेलंगाना बनने का विरोध कर रहे सांसदों का व्यवहार किसी भी दृष्टि से सही नहीं है. संसद के दोनों सदनों में उनका व्यवहार निंदनीय रहा है. लेकिन इससे सत्ता पक्ष का व्यवहार उचित नहीं हो जाता. देश को यह जानने का हक है कि सदन में उनके जनप्रतिनिधि क्या कर रहे हैं. अगर उनका व्यवहार मर्यादित नहीं है तो यह बात भी लोगों को मालूम होनी चाहिए. संसदीय कार्यवाही के प्रसारण को रोकने और बंद कक्ष में विधेयक पारित करने से कांग्रेस और भाजपा के इरादों पर सवाल उठना स्वाभाविक है.
यह हड़बड़ी तेलंगाना में स्थित 17 लोकसभा सीटों पर जमी कांग्रेस की निगाह की ओर संकेत तो करती ही है, भाजपा के दोहरे मापदंड का खुलासा भी करती है, जो विधेयक का समर्थन करते हुए भी दिखना चाहती है और इसके पारित करने तरीके का विरोध कर सीमांध्र के लोगों को भी संतुष्ट करना चाहती है. कांग्रेस और भाजपा की राजनीतिक अवसरवादिता के कारण ही राज्यसभा में भी इस विधेयक को लेकर गतिरोध पैदा हुआ है. यह प्रकरण एक खतरनाक संसदीय परंपरा न बने, यह पूरे देश के लिए एक राजनीतिक चुनौती है.