बुफे यानी खाइए और खिसकिए

।। पंकज कुमार पाठक।। (प्रभात खबर, रांची) बुफे, भोज की यूरोपीय पद्धति है. भारत में इसकी आमद हाई क्लास सोसायटी से हुई. लेकिन अब छोटे-छोटे शहरों और कस्बों तक इसकी पहुंच हो गयी है. इसने पंगत में बिठा कर मनुहार करके खिलाने की परंपरा को आउटडेटेड बना दिया है. बुफे के आलोचक इसे भिखमंगा भोज, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 20, 2014 4:10 AM

।। पंकज कुमार पाठक।।

(प्रभात खबर, रांची)

बुफे, भोज की यूरोपीय पद्धति है. भारत में इसकी आमद हाई क्लास सोसायटी से हुई. लेकिन अब छोटे-छोटे शहरों और कस्बों तक इसकी पहुंच हो गयी है. इसने पंगत में बिठा कर मनुहार करके खिलाने की परंपरा को आउटडेटेड बना दिया है. बुफे के आलोचक इसे भिखमंगा भोज, कुकुरभोज, गिद्धभोज जैसी अनेक उपमाएं देते हैं, पर इसका विकल्प उनके पास भी नहीं. आज जब शहरों में अंतिम संस्कार के लिए 10-20 आदमी जुटाना मुश्किल हो रहा है, तो शादी-ब्याह में पंगत में बिठा कर खिलाने के लिए लोग कहां से मिलेंगे? बुफे में पूरा समाजवाद होता है.

आप आम आदमी हों या वीआइपी, खाली प्लेट उठाइए और लाइन में लग जाइए. मानो किसी रिलीफ कैंप में लंगर ले रहे हों. उतावली भीड़ में घुसिए. एक -एक ‘आइटम’ के काउंटर पर जाकर मांगिए. कोई आइटम ज्यादा पसंद है, तो बेशर्मो की तरह पहले ही ज्यादा मांग लीजिए या फिर दोबारा उस काउंटर पर जाने का जोखिम उठाइए. अपने कपड़ों को सह-भोजियों से बचाते हुए, खड़े पांव, जल्दी-जल्दी काम निबटाइए. फिर जूठे बरतन खुद ही डस्टबिन में डालिए और घर आ जाइए. अच्छा हुआ कि बुफे में खाने के बाद जूठे बरतनों को धो कर वापस रखने की ‘परंपरा’ नहीं है. नहीं तो एक तरफ अफसर-नेता और दूसरी तरफ कोई चपरासी, एकसाथ अपने-अपने जूठे बरतन धोते हुए दिखते. बेशर्मी के नियमित अभ्यास के बाद अब मैं एक ‘अनुभवी बुफेबाज’ हूं, जिसे खाने से ज्यादा मजा तमाशा देखने में आता है.

बुफे में कुछ ‘प्रोफेशनल भुक्खड़’ अपनी छोटी-सी थाली में बीसों आइटम लेकर आयेंगे. ‘विविधता में एकता’ की तर्ज पर सारे व्यंजनों का स्वाद एक हो चुका होता है. इसके ठीक उलट, कुछ ‘एलीट’ अपनी थाली में सिर्फ दो आइटम लेकर ऐसे आयेंगे, जैसे खाने के बाद उन्हें पैसे चुकाने हैं. अरे नखरेबाज! अगले ने 500 रुपये प्रति प्लेट के हिसाब से भुगतान किया है और तुम 50 रुपये का भी नहीं खा सकते? खैर, दोष इनका भी नहीं है. खाने-खिलाने की हमारी ऐतिहासिक परंपरा ही अब इतिहास बन चुकी है.

भविष्य में हमारे बच्चों को स्कूलों में पढ़ाया जायेगा कि भारत में कभी अतिथियों के हाथ-मुंह धुला कर सम्मान के साथ खाने बिठाया जाता था. हर व्यंजन बिना मांगे परोसे जाता था. स्वादिष्ट व्यंजन ‘दोबारा’ मांगने की जरूरत नहीं पड़ती थी. एक जलेबी खायी नहीं कि परोसनेवाले लगभग दौड़ते हुए आकर दो और रख देते थे. जब तक खानेवाला का मन नहीं भरता, तब तक खिलाते. खाने के बाद हाथ धुलाया जाता. आयोजक खुद दरवाजे तक अतिथियों को छोड़ने आते. छोटी से छोटी चूक के लिए माफी मांगते. आज के बुफे की तरह नहीं कि जूता-चप्पल पहने, खड़े-खड़े, भिखारियों की तरह खा रहे हैं. उस परंपरा में खाने के व्यंजन कम, लेकिन खिलाने का भाव अधिक होता था. काश! लौट आते वो दिन.

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