भ्रष्टाचार का महापाश
तमिलनाडु के मुख्य सचिव पी राममोहन राव के घर और दफ्तर की तलाशी के बाद आयकर विभाग ने नये नोटों में 48 लाख रुपये तथा सात किलो सोना बरामद करने का दावा किया है. राव और उनके करीबियों के 15 ठिकानों पर हुई कार्रवाई में करीब पांच करोड़ की अघोषित संपत्ति का पता चलने की […]
तमिलनाडु के मुख्य सचिव पी राममोहन राव के घर और दफ्तर की तलाशी के बाद आयकर विभाग ने नये नोटों में 48 लाख रुपये तथा सात किलो सोना बरामद करने का दावा किया है.
राव और उनके करीबियों के 15 ठिकानों पर हुई कार्रवाई में करीब पांच करोड़ की अघोषित संपत्ति का पता चलने की बात भी कही जा रही है. माना जा रहा है कि गिरफ्तार कारोबारी जे शेखर रेड्डी और उनके एक सहयोगी के साथ राव के संबंध हो सकते हैं. रेड्डी के पास से इस महीने की शुरुआत में नये नोटों में 34 करोड़ के साथ 170 करोड़ नकद और 127 किलो सोना बरामद किया गया था.
नोटबंदी से पैदा नकदी के संकट के कारण जहां आम लोग और उद्यमी बुरी तरह से परेशान हैं, वहीं अनेक नेताओं, अधिकारियों, बैंकरों और कारोबारियों से अब तक 3,185 करोड़ से अधिक नकदी पकड़ी जा चुकी है. इस सिलसिले से शीर्ष स्तर पर व्याप्त भारी भ्रष्टाचार फिर से उजागर हुआ है. ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के अनुसार, 2015 में भ्रष्टाचार वाले 167 देशों की सूची में भारत का 76वां स्थान था. ग्लोबल करप्शन बैरोमीटर के 2013 के अध्ययन में पाया गया था कि भारत में भ्रष्टाचार का स्तर वैश्विक औसत से दोगुना है.
पिछले 25 सालों का जायजा लें, तो घपले-घोटालों और रिश्वतखोरी के मामलों में शासन, प्रशासन, न्यायालय, सेना, उद्योग जगत, खेल प्रबंधन जैसे सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में बड़े-बड़े ओहदेदारों के नाम सामने हैं और गिरफ्तारियां हुई हैं. लेकिन, भ्रष्टाचार के प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बनने के बावजूद दंडित करने की लचर प्रक्रिया के कारण दोषी बचाव का रास्ता भी खोज लेते हैं. सत्ता के विभिन्न स्तरों पर बेईमान गंठजोड़ इसमें भी उनके काम आ जाता है.
वर्ष 2015 में 2014 की तुलना में भ्रष्टाचार के मामलों में पांच फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई थी. पिछले साल के अंत तक 13,585 मामलों की जांच चल रही थी, जिनमें अधिकांश सरकारी अधिकारियों की घूसखोरी और आपराधिक आचरण से संबद्ध हैं. अदालतों में लंबित ऐसे मुकदमों की संख्या 29,206 थी. वर्ष 2015 में भ्रष्टाचार निरोधक कानून में संशोधन कर इसे गंभीर अपराध की श्रेणी में डाल कर ऐसे मामलों की सुनवाई दो साल के भीतर करने का प्रावधान किया गया था. फिलहाल स्थिति यह है कि सिर्फ 19 फीसदी मामलों में ही दोषियों को सजा हो पाती है. छह राज्यों- बंगाल, गोवा, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा और मेघालय- में तो 2001 से 2015 के बीच एक भी व्यक्ति दंडित नहीं हुआ, और मणिपुर में इस दौरान सिर्फ एक मामले में सजा हुई.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के ये आंकड़े इंगित करते हैं कि भ्रष्टाचार का घुन किस तरह से हमारे राष्ट्रीय जीवन को खोखला कर रहा है.
ऐसे भ्रष्ट वातावरण में देश का सर्वांगीण विकास हमेशा दूर की कौड़ी बना रहेगा. अस्थिरता और असमानता की बड़ी वजह भी यही है. इससे लोकतंत्र की गति भी बाधित होती है. अनेक नियमों, कानूनों और संस्थाओं के बावजूद बड़े पैमाने पर हो रही इस लूट को रोका नहीं जा पा रहा है. केंद्रीय जांच ब्यूरो ने बीते दस सालों में सात हजार मामलों की जांच की है, जिसमें 70 फीसदी मामलों में दोषी भ्रष्ट अधिकारियों को सजा दी गयी है. लेकिन, सीमित क्षमता और राजनीतिक दखल के कारण उसकी भी धार कमजोर हो सकती है. अभी उसके पास साढ़े छह हजार से अधिक मामले हैं.
नौकरशाहों पर कार्रवाई में एक बड़ी बाधा मौजूदा कानून हैं. पिछले महीने केंद्र सरकार ने भ्रष्टाचार निरोधक कानून में बदलाव करने के संसदीय समिति के उस सुझाव को मान लिया है, जिसमें सरकारी अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई करने से पहले जांच एजेंसियों को सरकार से अनुमति लेने को अनिवार्य बनाने की बात कही गयी है. इसके पीछे उद्देश्य तो ईमानदार अधिकारियों को बिना किसी भय या पक्षपात के काम करने का माहौल मुहैया कराना है, पर इस प्रावधान के दुरुपयोग की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है. मौजूदा व्यवस्था में भी जांच से संबंधित नियम नौकरशाहों के लिए सुरक्षा कवच का काम करते हैं.
बिना सरकारी अनुमति के उन पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता है. पिछले साल इस नियम के तहत केंद्र सरकार ने 239 मामलों में अभियोजन की मंजूरी दी थी, जबकि जांच एजेंसियों के 39 अनुरोधों को खारिज कर दिया था, जिनमें अधिकांश बैंकिंग क्षेत्र के अधिकारियों से जुड़े थे. वर्ष 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहते हुए अनुमति की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया था कि सरकारी अधिकारियों में उनके पद के आधार पर भेदभाव अनुचित है. इस फैसले के बाद ही कानूनी संशोधन की प्रक्रिया शुरू हुई थी.
यह विडंबना ही है कि रिश्वत लेने के आरोपी एक साधारण कर्मचारी पर तो कार्रवाई की जा सकती है, पर अगर आरोपी उच्च पदस्थ अधिकारी है, तो जांच के लिए सरकारी मंजूरी जरूरी है.
देश चलाने और अहम फैसले लेने की जिम्मेवारी जिन लोगों पर है, अगर वही भ्रष्टाचार के वृहत संजाल को संचालित कर रहे हैं, तो फिर सुधार की गुंजाइश नहीं बचती है. घपले और लूट का सिलसिला ऐसे ही चलता रहेगा तथा जनता भ्रष्टाचार मिटाने के खोखले नारों और वादों की भुल-भुलैया में भटकती रहेगी.