न्यू इयर की पिकनिक
प्रभात रंजन कथाकार नये साल को लेकर अखबार और इंटरनेट साइट छुट्टियों के पैकेज की घोषणाओं से भरे हुए हैं. मुझे अपने कस्बे की पिकनिक याद आ रही है. नये साल का इंतजार हम इसलिए करते थे, क्योंकि उस दिन हम लोग पिकनिक मनाते थे. मुझे अपने पहले पिकनिक की भी कभी-कभी याद आती है. […]
प्रभात रंजन
कथाकार
नये साल को लेकर अखबार और इंटरनेट साइट छुट्टियों के पैकेज की घोषणाओं से भरे हुए हैं. मुझे अपने कस्बे की पिकनिक याद आ रही है. नये साल का इंतजार हम इसलिए करते थे, क्योंकि उस दिन हम लोग पिकनिक मनाते थे. मुझे अपने पहले पिकनिक की भी कभी-कभी याद आती है. तब मैं आरा के मोंटेसरी स्कूल में पढ़ता था और नये साल में स्कूल की तरफ से पिकनिक मनाने के लिए कोइलवर पुल के पास गया था. नदी के तट पर मेरा टिफिन खुल गया था और मेरा खाना बालू में गिर गया था. उसके बाद मैं कभी किसी स्कूल की पिकनिक में नहीं गया.
नये साल की पिकनिक हमारे लिए सच में उत्सव की तरह ही होती थी. सीतामढ़ी में अपने घर से बमुश्किल 6-7 किमी दूर पुनौरा में सीता की जन्मस्थली के पास उस पिकनिक की तैयारी कई दिनों से चलती थी. खाना बनाने का सामान रखा जाता था. टायर-गाड़ी को कई दिन पहले से सजाया जाता था, जिसमें बैठ कर हम एक घंटे से भी अधिक समय में उस जगह पहुंचते थे. टायर-गाड़ी की यात्रा का रोमांच उस पिकनिक का बोनस होता था.
पिकनिक में मुझे एक बात अच्छी लगती थी कि घर के जिन बड़े-बुजुर्गों से हमारा डांट, अनुशासन का ही नाता होता था, उस दिन उनके व्यक्तित्व का अलग ही रंग दिखता था. जैसे मुझे पिकनिक से ही पता चला कि मेरे दादा कवि थे और दिनकर जिन दिनों सीतामढ़ी में नौकरी करते थे, तब उनकी सोहबत में उनका भी उठना-बैठना था. वैसे तो घर में दादा का आतंक ही रहता था. कुशल समाचार से आगे कोई बात हुई हो, यह कभी याद नहीं आता.
पिकनिक में न जाने कितने ही परिवार एक परिवार की तरह दिखते थे. कई चूल्हे एक साथ सुलग रहे होते थे. बच्चों के लिए जैसे पिकनिक का मैदान एक विशाल आंगन की तरह होता था, जिसमें वे दौड़ते-भागते, बड़े बुजुर्गों के जीवन के किस्से सुनते थे.
पहली बार कवि गोपाल सिंह नेपाली का नाम और उनका गीत ‘तुम सा मैं लहरों में बहता मैं भी सत्ता गह लेता/गर मैं भी ईमान बेचता मैं भी महलों में रहता’ मैंने अपने पिता से पिकनिक में सुना था. दादी कहती थीं कि साल के पहले दिन नहीं डांटना चाहिए, इससे साल भर डांट ही पड़ती है. असल में, साल के पहले दिन पिकनिक के पीछे विचार यही होता था कि साल का पहले दिन साथ-साथ हंसी-उल्लास से मना लिया जाये. इससे साल अच्छा बीतेगा.
अब मॉल कल्चर, न्यू इयर के ट्रेवेल पॅकेज के इस दौर में वह पारिवारिकता, सामाजिकता गुजरे जमाने की बात होकर रह गयी है. कई बार सोचा कि नये साल पर मुजफ्फरपुर जाऊं और न कहीं तो वैशाली में ही पिकनिक मनाने जाऊं. लेकिन, अब वह सामाजिकता और वह पारिवारिक सौहार्द हमारे कस्बों में भी नहीं बचा है. सीतामढ़ी या मुजफ्फरपुर में अभी न तो कोई मॉल है, न ही मल्टीप्लेक्स, लेकिन दिखावे की संस्कृति ने उस निश्छल सामाजिकता का अंत कर दिया है.
हमारे कस्बों में पिकनिक अब भी मनाये जाते हैं, मेरे भाई ने बताया कि शहर के लोग अब पिकनिक मनाने के लिए हमारे गांव के गाछी में आने लगे हैं. एक दिन के लिए ही सही, शहर के लोग अपने आसपास के गांवों के जीवन को जीने का सुख उठाने के लिए अब वहां जाते हैं. लेकिन, अजनबियत के माहौल में कैसी पिकनिक?
मैं सोच रहा हूं कि सस्ते रेट पर आखिरी वक्त की डील में किसी साइट से किसी पहाड़ का न्यू इयर पॅकेज डील ले लूं! हम विस्थापितों की पिकनिक तो ऐसी ही होती है! है न!