रेतीली भूमि पर निरंतरता की खोज

संदीप मानुधने विचारक, उद्यमी एवं शिक्षाविद् साल 2016 समाप्त होने को है. मानवता की सबसे सनातन प्रवृत्ति- आशावाद का सहारा लेकर हम सब 2017 में नयी उम्मीदों के साथ प्रवेश करने जा रहे हैं. किंतु पिछले कुछ समय के रुझान अब बड़े स्पष्ट दिखने लगे हैं, और तय है कि किसी के लिए भी एक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 29, 2016 6:24 AM
संदीप मानुधने
विचारक, उद्यमी एवं शिक्षाविद्
साल 2016 समाप्त होने को है. मानवता की सबसे सनातन प्रवृत्ति- आशावाद का सहारा लेकर हम सब 2017 में नयी उम्मीदों के साथ प्रवेश करने जा रहे हैं. किंतु पिछले कुछ समय के रुझान अब बड़े स्पष्ट दिखने लगे हैं, और तय है कि किसी के लिए भी एक निश्चित दीर्घावधि की रणनीति बना कर चलना अब असंभव होने लगा है, व परिवर्तन को समझ पाना भी उतना सरल नहीं रहा. हममें से कोई भी इस रेतीले भूचाल से अछूता नहीं रहेगा. पांच स्पष्ट मुद्दों में यह सत्य झलकता है, जिन्हें हम देखेंगे.
पहला : विश्व राजनीति- पहले ओबामा जीत पायेंगे, यह उम्मीद कम ही लोगों को थी, किंतु वे दो बार जीते. ट्रंप जीत पायेंगे, यह उम्मीद उससे भी कम विश्लेषकों को थी, किंतु वे न केवल जीते, वरन अपनी शैली में उन्होंने वह सब करना शुरू कर दिया है, जो कभी सोचा भी नहीं जा सकता था. चीन को तगड़ा झटका देते हुए उन्होंने ताइवान की राष्ट्रपति से फोन पर बात कर ली (ऐसा ‘एक-चीन नीति’ के तहत 40 बरसों में नहीं हुआ था). हर रिश्ते पर प्रश्न उठाते हुए उन्होंने यहां तक कह दिया कि संयुक्त राष्ट्र समय बरबाद करने की जगह है, जहां लोग मजे करने आते हैं!
अंतरराष्ट्रीय पटल पर अब वह सब होने जा रहा है, जो नयी परिभाषाएं गढ़ देगा. भारत की विदेश नीति में यह अति-सकारात्मक से लेकर अति-नकारात्मक, कुछ भी हो सकता है और कम ही लोग कह पायेंगे कि ऊंट किस करवट बैठेगा. न केवल मध्य-पूर्व (पश्चिम एशिया), वरन दक्षिण एशिया भी बेहद तेजी से परिवर्तन झेलेगा. चीन यदि दक्षिण-चीन सागर में अमेरिका से आशंकित होकर आक्रामक हुआ, तो उसका असर हिंद महासागर क्षेत्र पर पड़ेगा. बलूचिस्तान का ऊंट किसी भी करवट बैठ सकता है, और पाकिस्तानी नागरिक भी चीन-पाक-आर्थिक-गलियारे के विरोध में खड़े हो सकते हैं!
दूसरा : भारतीय अर्थव्यवस्था- 8 नवंबर तक बड़ी कंपनियाें की रणनीतिक योजनाएं बनानेवाले मैनेजमेंट एक्स्पर्ट्स चारों खाने चित्त पड़े हुए हैं. रातों-रात मोदी जी एक नयी लकीर खींच देंगे, यह कल्पना तक अब उन्हें हिला देती है- क्योंकि अनेक व्यापारों की जमीन ही खिसक चुकी है और पूरी उम्मीद अगले 3 महीनों पर टिकी है कि बजट आशावाद का सवेरा लायेगा और पुनः गाड़ी पटरी पर आ जायेगी. हां, अनेक उद्यमियों को रातों-रात वह आशिर्वाद मिल गया, जो बरसों के प्रयास से भी वे नहीं ला पाते- अर्थात् ‘फिन टेक’ कंपनियां जो वित्तीय तकनीकें प्रदान कर ऑनलाइन पेमेंट व्यवसाय से जुड़ी हुई हैं.
कोई आइआइएम का दिग्गज नहीं बता सकता कि नये प्रतिमान क्या बनेंगे. क्या भारत के असंख्य साधारण नागरिक वास्तव में तकनीकी में फुर्तीले और ऑनलाइन हो जायेंगे, जब स्वयं ब्रॉडबैंड ऑप्टिक केबल बिछाने की सरकारी योजनाएं रेंग रही हैं? यह बहुत देखने लायक रहेगा कि एक महत्वाकांक्षी योजना अंततः किस रूप में आगे बढ़ेगी, क्योंकि हमरा भविष्य इससे जुड़ चुका है. नागरिकों को यह भी उम्मीद है कि खूसखोरी में लिप्त रहनेवाला एक सरकारी वर्ग, जिसका बेहिसाब पैसा बेनामी संपत्तियों में लगा हुआ है, उस पर हमला होगा और स्थितियां आगे के लिए बदलेंगी. क्या वाकई ऐसा होगा? उम्मीदें कायम हैं!
तीसरा : महिलाओं की स्थिति- हमें हर वर्ष अनेकों नयी योजनाओं और घोषणाओं से बताया जाता है कि देश की महिलाओं को अब पूर्ण सुरक्षा और विकास की मुख्यधारा से जोड़ दिया जायेगा.
किंतु स्थिति की भयावहता का अंदाजा लगाने हेतु महिलाओं पर होनेवाले अपराधों की प्रवृत्ति और अपराधियों की लगातार घटती उम्र पर एक नजर डाल लेना काफी है. सच्चाई यह है कि भारतीय समाज और व्यवस्था पूरी तरह से महिलाओं के मामले में नाकारा और अर्थहीन सिद्ध हो चुकी है. एक तो हमारा समाज अब भी गहराई तक सामंती और पुरुष-प्रधान ही है. और दूसरी ओर, सुप्रीम कोर्ट की तमाम आपत्तियों के बावजूद सरकारें हर हाथ में मौजूद मोबाइल फोन में सरलता से पहुंचती अश्लीलता की बाढ़ को रोकने में पूर्णतः विफल हो चुकी है, और इसका किसी-न-किसी स्वरूप में दंड लड़कियों और औरतों को मिल रहा है, जिन पर भयानक यौन अपराध हो रहे हैं. पुलिस-प्रशासन की असंवेदनशीलता के किस्से पढ़-पढ़ कर हम थक चुके हैं. यह कब बदलेगा? खोखली घोषणाओं और निरर्थक वादों के अलावा क्या सरकारें कुछ दे पायेंगी?
चौथा : भविष्य के बाजारों का अवसर- अगले दस वर्षों में भारत विश्व का सबसे विशाल इंटरनेट सेवाओं का बाजार बन जायेगा. न केवल सबसे अधिक हाथों में भारत में ही इंटरनेट होगा, वरन ऑनलाइन आर्थिक लेन-देन में भी हम सबसे आगे होंगे.
लेकिन, इस सबसे बड़े बाजार में हमारी अपनी ब्रांड्स लगभग गैर-मौजूद होंगी! राजनीतिक संप्रभुता, जो इंटरनेट के सीमारहित विश्व में वैसे भी एक बड़ा प्रश्न बन चुकी है, को बड़ा खतरा उन विदेशी ब्रांड्स से मिलेगा, जो भारत और भारतीयों की रग-रग में बस चुकी होंगी. गूगल, फेसबुक, ट्विटर, अमेजन, उबर, इ-बे, ये सब हमारे नहीं हैं. न ही हमारा कोई राष्ट्रीय एजेंडा है कि अपने डिजिटल चैंपियन तैयार हों. हम खुश हैं कि हमारे बच्चों को करोड़ों के पैकेज पर ये कंपनियां नौकरियां देती हैं, और हम दुखी नहीं हैं कि हमारा बाजार हमेशा के लिए खोता जा रहा है. अब ऑनलाइन पेमेंट के आते-हुए दौर में, अमेरिकी और चीनी पूंजी से पोषित कंपनियां दम भरती दिखेंगी. बेहद रोचक होगा देखना कि इस रेतीले पर्वत पर सरकार क्या राह खोजेगी.
पांचवां : हमारी मूल शक्ति- भारत इतनी सारी समस्याओं के बाद भी एक ऐसा मुल्क है, जिसने नये रास्ते खोज निकाले हैं. हमारी सहिष्णुता, हमारी उदासीनता भले ही दिखती हो, किंतु हमारी जड़ों को सींचने का काम भी वे ही करती हैं.
ऐसी जड़ें, जिनके अभाव में कई राष्ट्र पूरी तरह से विखंडित हो चुके हैं- यूगोस्लाविया, सूडान, सीरिया- ऐसे कई उदाहरण हैं, जहां हमसे कहीं कम विविधता होते हुए भी संघर्ष भयंकर हुए. लेकिन, अब भारत को कुछ कड़े निर्णय अपने भविष्य के लिए लेने ही होंगे. हमें अब परिणामपरक शिक्षा प्रणाली चाहिए, अपने भरे हुए करों का उत्पादक परिणाम चाहिए, एक संवेदनशील सरकारी-प्रशासनिक व्यवस्था चाहिए और बच्चों के लिए सुरक्षित भारत चाहिए. 2017 हमारी आजादी का सत्तरवां वर्ष होगा- बदलाव अब होना ही चाहिए. नव वर्ष की शुभकामनाएं!

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