बाय दिसंबर, हाय जनवरी
डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार हर साल के अंत में लोग दिसंबर को बाय और जनवरी को हाय कह कर पुराने साल की विदाई और नये साल का स्वागत करते आये हैं. हालांकि, इस बार आम आदमी के मुंह से दिसंबर के लिए बाय न निकल कर हाय ज्यादा निकली. यह हाय आठ नवंबर से […]
डॉ सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
हर साल के अंत में लोग दिसंबर को बाय और जनवरी को हाय कह कर पुराने साल की विदाई और नये साल का स्वागत करते आये हैं. हालांकि, इस बार आम आदमी के मुंह से दिसंबर के लिए बाय न निकल कर हाय ज्यादा निकली. यह हाय आठ नवंबर से शुरू हुई और दिसंबर खत्म होते-होते हाय-हाय में बदल गयी. प्रधानमंत्री ने तीस दिसंबर तक का समय मांगा था और फिर भी हालात न सुधरे तो चौराहे पर खड़ा कर देने के लिए कहा था. मुझे पता है, जनता फिर भी ऐसा नहीं करेगी, वरना फिर भविष्य में उसका मुफ्त का मनोरंजन कैसे होगा.
वैसे दिसंबर भी हमारे प्रधानमंत्री की ही तरह है, नजर कुछ और आता है और निकलता कुछ और है. तभी तो शायर की तरह जनता भी कहने को मजबूर है- तू करीब आ तुझे देख लूं, तू वही है या कोई और है? अंगरेजी का अंध विरोध करनेवाले हमारे भाई पता नहीं, जानते हैं या नहीं कि अंगरेजी और हिंदी तथा उनकी स्रोत-भाषाएं लैटिन और संस्कृत एक ही परिवार की भाषाएं हैं और इसलिए उनमें बहुत-सी आश्चर्यजनक समानताएं हैं.
दिसंबर या डिसेंबर शब्द लैटिन के डिसेम शब्द से बना है, जिसका अर्थ है दस. उधर संस्कृत में दशम् का अर्थ भी दस है. इस ‘डिसेम’ के आगे ‘बर’ प्रत्यय लगने से डिसेंबर बना, जो अंग्रेजी के ‘th’ और हिंदी के ‘वां’ प्रत्ययों का समानार्थी है. इस तरह डिसेंबर का अर्थ हुआ दसवां, जबकि महीना वह बारहवां है. यही बात सेप्टेंबर, ऑक्टोबर और नवंबर के साथ है, जिनका अर्थ तो सातवां, आठवां और नौवां है, पर महीने वे नौवें, दसवें और ग्यारहवें हैं.
आप पूछेंगे, यह कैसे हुआ? असल में शब्दों की भी एक भरी-पूरी दुनिया है, जिसमें वे पैदा होते, पलते-बढ़ते, उलटते-पलटते, मुटाते-दुबलाते, उठते-गिरते हैं और मर भी जाते हैं. ‘मृग’ शब्द को ही लें.
मृग पहले हिरन ही नहीं, बल्कि सभी जानवरों को कहा जाता था. बंदर शाखामृग इसलिए नहीं कहलाता है कि वह शाखाओं पर चलने-फिरनेवाला ‘हिरन’ है, बल्कि इसलिए कि वह शाखाओं पर चलने-फिरनेवाला जानवर है. शेर को भी मृगराज इसलिए कहते हैं, क्योंकि वह सभी जानवरों का राजा है, सिर्फ हिरन का नहीं. भर्तृहरि ने भी ‘येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः’ जैसी विशेषताओं को रखनेवाले मनुष्यों को मृत्युलोक में धरती पर बोझ की तरह और मनुष्य के रूप में जानवर बताया था, हिरन नहीं- मनुष्यरूपेण मृगाश्चरंति.
सितंबर, अक्तूबर, नवंबर और दिसंबर भी पहले अपने अर्थ के अनुरूप सातवें, आठवें, नौवें और दसवें महीने ही थे, क्योंकि पहले वर्ष दस महीने का होता था, जो मार्च से शुरू होता था, जिसका अर्थ ही है चलना, कूच करना, प्रयाण करना. बाद में उसके शुरू में दो महीने और जुड़ गये, जिससे सितंबर, अक्तूबर, नवंबर और दिसंबर महीनों के अर्थ तो वही रह गये, क्रम-संख्या बदल गयी.
यह समय नये-नये संकल्प लेने का है, जो ज्यादातर तोड़ने के लिए लिये जाते हैं. कुछ संकल्प भी ऐसे होते हैं, जो पूरे नहीं किये जा सकते, जैसे कि वजन कम करने का संकल्प या रोज नहाने का संकल्प. वजन कम करने का संकल्प पूरा करने की कोशिश में आदमी का वजन और बढ़ जाता है.
इतने दिन बिना नहाये लोग कैसे रह लेते हैं, पता नहीं, अपन को तो 28वें-29वें दिन ही खुजली शुरू हो जाती है. संकल्पों के मामले में अपना हाल हफीज जालंधरी के शब्दों में ऐसा है- इरादे बांधता हूं सोचता हूं तोड़ देता हूं, कहीं ऐसा न हो जाये, कहीं वैसा न हो जाये.