लोकप्रियता मोदी के साथ है
आकार पटेल कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया किसी नेता की लोकप्रियता के आकलन में उसके द्वारा हासिल उपलब्धि की क्या भूमिका होती है? इस बारे में तर्क कह सकता है कि जो नेता अपने नागरिकों की समृद्धि सुनिश्चित करेगा, वही लोकप्रिय बना रहेगा. लोकतांत्रित नीतियों में इसे सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण एकल गुण के तौर पर […]
आकार पटेल
कार्यकारी निदेशक, एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया
किसी नेता की लोकप्रियता के आकलन में उसके द्वारा हासिल उपलब्धि की क्या भूमिका होती है? इस बारे में तर्क कह सकता है कि जो नेता अपने नागरिकों की समृद्धि सुनिश्चित करेगा, वही लोकप्रिय बना रहेगा. लोकतांत्रित नीतियों में इसे सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण एकल गुण के तौर पर देखा जा सकता है.
और इसलिए, उच्च आर्थिक वृद्धि की अवधि में राज्य या केंद्र में जो दल सत्ता में होगा, वह अगली बार वापस सत्ता पर काबिज होने में कामयाब होता है. विशेषज्ञों का मानना है कि इसी वजह से बीते दो दशक में कई सत्तारूढ़ नेताओं ने सत्ता विरोधी लहर के बावजूद चुनाव में सफलता प्राप्त की है. ऐसे नेताओं में ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, बिहार के नीतीश कुमार, मध्य प्रदेश के शिवराज सिंह चौहान, पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी का नाम जेहन में आता है. ये सभी मुख्यमंत्री उस दौरान सत्ता में रहे, जब उनके राज्य ने तुलनात्मक रूप से तेजी से विकास किया.
जब ये मुख्यमंत्री वापस सत्ता में आये तो ऐसा माना गया कि सत्ता विरोधी लहर को पीछे छोड़ने में इन राज्यों के तेज विकास दर ने इनकी मदद की. इस तर्क का अर्थ यह हुआ कि जो नेता अच्छा प्रदर्शन करने में नाकाम रहते हैं, खासकर अर्थव्यवस्था को लेकर, वे चुनाव में दंडित किये जाते हैं. मतदाता को यह उम्मीद होती है कि उनके नेता उनके जीवन में बदलाव लायेंगे, उन्हें समृद्ध बनायेंगे.
हालांकि, इस सिद्धांत से जुड़ी समस्या यह है कि इसके पक्ष में एक भी आंकड़ा नहीं है. वर्ष 2004 से लेकर 2014 तक के दशक में भारत की आर्थिक वृद्धि दर सबसे तेज थी और उस दौरान कांग्रेस सत्ता में थी. लेकिन 2014 में हुए चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई और लोकसभा में उसे अब तक की सबसे कम सीटें हासिल हुईं. ऐसे में कहा जा सकता है कि इस चुनाव को प्रभावित करनेवाले कारक कुछ और ही थे. इन कारकों में दो प्रमुख थे, पहला मनमोहन सिंह सरकार के विरुद्ध भ्रष्टाचार का आरोप और दूसरा नरेंद्र मोदी की उपस्थिति और उनका आक्रामक प्रचार अभियान. वर्ष 2014 के चुनाव को हम संभवत: एक अपवाद मान सकते हैं या उसे अलग तरह से देख सकते हैं.
दुर्भाग्यवश, इसके पहले के आंकड़े भी अधूरे हैं. हाल के वर्षों में दूसरी सबसे तेज आर्थिक वृद्धि 2004 तक अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में दर्ज की गयी. इस वृद्धि के कारण एनडीए अपनी जीत को लेकर इतना निश्चिंत हो गयी कि उसने इसी की बदौलत इंडिया शाइनिंग जैसा विज्ञापन लॉन्च कर दिया.
लेकिन, उसका हश्र क्या हुआ? वाजपेयी चुनाव हार गये और उस हार का कारण कोई भी नहीं समझ पाया. अनुमान लगाया गया कि भारतीय जनता पार्टी को यह विश्वास था कि उसने अार्थिक तौर पर भारत को समृद्ध बनाया है, लेकिन सच इसकी पुष्टि नहीं करता था. और अगर उसने सच में अच्छा प्रदर्शन किया होता, तो क्या वह जीत दर्ज कर पाती? यहां मैं कहूंगा कि नहीं.
दशकों पहले हमें यह पता चल गया था कि इस उपमहाद्वीप में चुनाव में जीत हासिल करने के लिए अच्छा आर्थिक प्रदर्शन महत्वपूर्ण नहीं है. वर्ष 1950 और 1960 के सकल घरेलू उत्पाद की बात करें, तो उस दौरान आर्थिक मोर्चे पर कांग्रेस का प्रदर्शन बेहद खराब था. हिंदू रेट ऑफ ग्रोथ यानी उस अवधि में सालाना तीन प्रतिशत या उससे कम की वृद्धि दर्ज की गयी थी. इसके बावजूद उस समय कांग्रेस ने बड़े पैमाने पर चुनाव में जीत हासिल की थी.
उन दिनों जिसे गुड गवर्नेंस यानी अच्छा प्रशासन कहा जाता था, वह आजकल बहुत कम दिखाई देता है. यहां एक सवाल यह है कि क्या हम 1960 के दशक से पूरी तरह बदल चुके हैं. मेरा मानना है कि ऐसा नहीं है. भारत जैसे प्राचीन देश इतने नाटकीय ढंग से नहीं बदल सकते. और इसलिए यह मानना असंभव है कि चुनाव में जो नतीजे प्राप्त होते हैं, वे ज्यादातर आर्थिक प्रदर्शन के आधार पर तय होते हैं. इस बात के समर्थन में कोई प्रमाण भी नहीं हैं.
अभी हम जिस कारण कि चर्चा कर रहे हैं, उस आधार पर यह देखना है कि किसी तरह से विमुद्रीकरण का वर्तमान संकट 2017 में नरेंद्र मोदी की पार्टी के जीत की संभावनाओं को प्रभावित करता है. भारतीय जनता पार्टी के सामने अभी उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य और पंजाब, गोवा व उसके बाद गुजरात जैसे छोटे राज्यों के चुनाव हैं. विपक्षी इस बात की आस में हैं कि नरेंद्र मोदी सरकार में अर्थव्यवस्था का मामूली प्रदर्शन और विमुद्रीकरण जैसे संकट के कारण उन्हें पराजय का सामना करना पड़ेगा.
मुझे नहीं लगता है कि यह इतना आसान है. आकर्षण, विश्वसनीयता और वाक्पटुता आज भी मोदी के साथ है. इसलिए मोदी के प्रति मतदाताआें के लगाव को गुस्से में बदलने के लिए विपक्ष को अभी काफी काम करने की जरूरत है. विमुद्रीकरण का संकट अगर फरवरी में भी जारी रहता है, तब भी यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि चीजें एकदम से विपक्ष के पाले में आ जायेंगी. अगर हम यह भी मान लें कि विमुद्रीकरण के कारण अर्थव्यवस्था पर करारा प्रहार होगा और सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) कुछ तिमाही के लिए नीचे चला जायेगा, तो भी मोदी की लोकप्रियता को कम करने के लिए ये कारण पर्याप्त साबित नहीं होंगे.
आर्थिक मोर्चे पर बिना अच्छे प्रदर्शन के जैसे पंडित जवाहरलाल नेहरू और उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने अपने मतदाताओं को बांधे रखा था और जैसे जुल्फिकार अली भुट्टो और उनकी बेटी बेनजीर भुट्टो ने पाकिस्तान में अपने मतदाताआें को अपने पक्ष में कर रखा था, हमें मानना चाहिए कि ठीक उसी तरह नरेंद्र मोदी भी करेंगे. अगर भाजपा 2017 में भी अपनी सफलता का सिलसिला कायम रखती है, तो इस बात से हमें अचंभित नहीं होना चाहिए.