फैसला एक, अर्थ अनेक

खास पत्रयूं तो सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दोषियों की मौत की सजा को उम्रकैद में बदलने की नीति कोई नई बात नहीं है. परंतु राजीव गांधी हत्याकांड के तीन दोषियों मुरु गन, संथानम और पेरारीवलन की मौत की सजा को उम्रकैद में बदलने का सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला, सरकार के नाकामी को भी इंगित […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 22, 2014 3:44 AM

खास पत्र

यूं तो सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दोषियों की मौत की सजा को उम्रकैद में बदलने की नीति कोई नई बात नहीं है. परंतु राजीव गांधी हत्याकांड के तीन दोषियों मुरु गन, संथानम और पेरारीवलन की मौत की सजा को उम्रकैद में बदलने का सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला, सरकार के नाकामी को भी इंगित करता है. अमेरिका, चीन या सोवियत संघ आदि विकसीत देशों में अगर ऐसी कोई घटना हुई होती तो उसके फैसले का अंजाम इस तरह नहीं होता. क्योंकि वहां की सरकार सशक्त और ऑन द स्पोट कार्य में विश्वास करती हैं. इसके ठीक विपरीत हमारी सरकार कैदियों और दोषियों के इतिहास को तैयार करने में ही सालों गुजार देती है जो आगे चलकर फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलने का कारण बन जाती है.

भारतीय न्याय व्यवस्था और अन्य देशों की न्याय व्यवस्था को लेकर किये गये शोध कार्यो का मानना है कि अन्य देशों की तुलना में भारतीय न्याय प्रणाली काफी धीमी है. इसके चलते कई बार सालों गुजर जाने के बाद फैसले आते हैं. कई बार फैसला आने से पहले भी दोषी की मौत हो चुकी होती है. जरूरत है कि हम अब इस तरह की व्यवस्था को बदलने की चिंता करें. सरकार और न्याय व्यवस्था अगर आपस में बेहतर मालमेल से कार्य करें तो आने वाले वक्त में इस स्थिति में बदलाव लाया जा सकता है. राजीव गांधी के हत्यारों को मौत की सजा या उम्र कैद देने की दो रायों को लेकर इन दिनों एक बार फिर फांसी की सजा को लेकर बहस मुखर हो चली है. यहां भी देखने वाली बात यह है कि दुनिया के कई मुल्कों में मौत की सजा को पूरी तरह से खत्म कर दिया गया है और सिर्फ उम्र कैद की सजा दी जा रही है. इसके पीछ तर्क दिया जाता है कि बेहतर से बेहतर न्याय व्यवस्था में चूक की गुंजाइश तो होती ही है. अत: किसी ऐसी व्यवस्था को किसी मनुष्य के प्राण लेने का हक देना कहां तक सही होगा.

सौरभ कुमार, सुपौल

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