फिर खोदा पहाड़, निकली चुहिया

डॉ सुरेश कांत वरिष्ठ व्यंग्यकार मेरे खयाल से पहाड़ों की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि वे पहाड़ होते हैं. हालांकि, आदमी इसे उनकी खासियत नहीं, बल्कि बुराई समझता है और विकास की छड़ी से उनकी यह बुराई दूर करने की भरपूर कोशिश करता रहता है. विकास वह काला जादू है, जिसके बल पर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 6, 2017 6:22 AM
डॉ सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
मेरे खयाल से पहाड़ों की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि वे पहाड़ होते हैं. हालांकि, आदमी इसे उनकी खासियत नहीं, बल्कि बुराई समझता है और विकास की छड़ी से उनकी यह बुराई दूर करने की भरपूर कोशिश करता रहता है. विकास वह काला जादू है, जिसके बल पर आदमी दूसरे आदमियों को भी भेड़-बकरी बना डालता है, पहाड़ तो फिर भी पहाड़ हैं.
पहाड़ों की दूसरी खासियत यह है कि लोगों में अपने ‘अचल’ होने की धारणा के विपरीत वे गुप्त रूप से सचल रहते हैं और यहां-वहां आते-जाते रहते हैं. गाहे-बगाहे प्रेमी-जनों के बीच जा पड़ने का तो उन्हें खास शौक होता है. कवि घनानंद अपने एक पद में पहाड़ों के इस शौक का जिक्र करते हैं कि एक समय था, जब प्रिया के गले के हार भी मिलन में पहाड़ों की तरह बाधक प्रतीत होते थे, जबकि आज प्रिया और उनके बीच साक्षात पहाड़ आ पड़े हैं- घनआनंद मीत सुजान बिना सबही सुखसाज समाज टरे, तब हार पहार-से लागत हे अब आनि कै बीच पहार परे.
पहाड़ पर्यटकों को ही नहीं, ऊंटों को भी बहुत पसंद हैं. फिर भी आम तौर पर न तो पर्यटकों को ऊंट कहा जाता है, न ऊंटों को पर्यटक. कारण शायद यह हो कि पर्यटक पहाड़ों के ऊपर जाते हैं और ऊंट उनके नीचे. अपनी इस पहाड़प्रियता का प्रदर्शन करने के लिए ऊंट तमाम मुश्किलों का सामना करते हुए जब-तब उनके नीचे जा खड़े होते हैं.
हिमालय में कथित रूप से बीसियों साल बाद खिलनेवाले नारी-आकृति के फूलों या आसमान में दशकों बाद घटित होनेवाली सुपरमून जैसी खगोलीय घटनाओं की ही तरह यह इतना अद्भुत और दुर्लभ नजारा होता है कि बहुत-से लोग तो अपने सारे काम-धंधे छोड़ यही देखते रहते हैं कि कब ऊंट पहाड़ के नीचे आये और वे सारी दुनिया से चिल्ला-चिल्ला कर कह सकें कि अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे!
पहाड़ों की चुहिया से भी खूब दोस्ती देखने में आती है. यह तो पता नहीं कि जहां चुहिया होती है, वहां पहाड़ बन जाते हैं या जहां पहाड़ बन जाते हैं, वहां चुहिया पहुंच जाती है? लेकिन इतना जरूर है कि जब भी कोई पहाड़ खोदा जाता है, उसमें से दन्न से यह चुहिया निकल पड़ती है. बार-बार ऐसा होते देख कर विद्वानों ने यह कहावत ही गढ़ डाली कि- ‘खोदा पहाड़ निकली चुहिया.’
पूछा जा सकता है कि पहाड़ खोदा ही क्यों जाता है, जिसके कारण बेचारी चुहिया को निकलने की जहमत उठानी पड़ती है? और वहां क्या कोई चूहे नहीं होते, जो पहाड़ खोदने पर कभी तो खुद भी निकलते?
इसका जवाब यही है कि वहां बेशक चूहे भी रहते हैं, लेकिन पहाड़ खोदे जाने पर निकलने का दायित्व उन्होंने चुहिया को ही सौंपा हुआ है. एक तो पहाड़ कुतर-कुतर कर चूहे इतने मोटे हो जाते हैं कि उनका निकलना संभव नहीं होता, और दूसरे, अपने रसूख की बदौलत उन्हें इसकी जरूरत भी नहीं होती. आवश्यकता पड़ने पर वे दिखावे के लिए चुहिया को आगे कर देते हैं, जिसे देख सब लज्जित होकर लौट जाते हैं कि अरे, इतना बड़ा पहाड़ खोदने पर भी यह छोटी-सी चुहिया ही निकली! इस तरह चुहिया के चक्कर में मोटे-मोटे चूहों की तरफ किसी का ध्यान ही नहीं जाता और वे साफ बच जाते हैं.
रहा सवाल पहाड़ खोदने का, तो कोई धंधे के तौर पर पहाड़ खोदता है, तो कोई शौकिया. नुकसान हर हाल में जनता को उठाना होता है. पहाड़ भ्रष्टाचार का भी होता है, लेकिन खोदने पर निकलती उसमें से भी चुहिया ही है, जिसे देख चतुर खनिक घोषित कर देता है कि उसे तो निकालनी ही चुहिया थी, जैसा कि अभी हाल ही में हुआ.

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